अमिताभ बच्चन की झुंड में बाबा साहेब आंबेडकर से जुड़े राजनीतिक मायने
"ये समाज के बहिष्कृत लोग हैं. आप कहते हैं कि ये झुंड है, मैं कहता हूँ कि ये हमारी राष्ट्रीय फ़ुटबॉल टीम है." नागपुर की झोंपड़पट्टी के एक लड़के के लिए अदालत में जिरह करते हुए कोच विजय बोराड़े ( अमिताभ बच्चन) की आँखें नम हो जाती हैं.
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झुग्गी बस्ती में पला बड़ा ये दलित लड़का नशा, अपराध, चाकूबाज़ी सब कर चुका है. उसकी जाति ने उसे ज़िंदगी के कई मौकों से दूर रखा है. लेकिन अब उसे मौका मिला है ज़िंदगी की बाज़ी पलटने का जब उसका चयन स्लम फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में हुआ है. लेकिन अतीत में जुर्म की दुनिया का साया उसके आज पर हावी है. अदालत में ये अपील उसकी आख़िरी उम्मीद है.
निर्देशक नागराज मंजुले की हाल ही में आई फ़िल्म झुंड ऐसे ही बस्ती के कुछ बच्चों की कहानी है. साथ ही कहानी है एक जुनूनी कोच के बारे में जिसे लगता है कि फ़ुटबॉल के ज़रिए इन बच्चों की किस्मत बदली जा सकती है जिसके लोग नशेड़ी और गंजेड़ी कह कर बुलाते हैं.
लेकिन इस सबसे परे झुंड उस 'बहिष्कृत भारत' की भी कहानी है जिसका ज़िक्र अमिताभ बच्चन कोर्ट में करते हैं.
ये कहानी है उस दीवार की जो बस्ती के इन बच्चों को पास के एलीट कॉलेज कैंपस से अलग करती है... और दास्तां है उस अदृश्य दीवार की भी जो समाज के वंचित लोगों को समाज से जुदा करती है.. दीवार जो है तो पर दिखती नहीं है.
शायद इसीलिए विजय बोराड़े बने अमिताभ बच्चन कोर्ट में कहते हैं, "इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि इन बच्चों में कितना टेलेंट है, लेकिन ये कभी आप तक नहीं पहुँच पाएँगे. इनके बीच एक बहुत बड़ी दीवार है."
दीवारें तोड़ने की कोशिश करता विजय
झुंड देखकर ऐसा लगा मानो 1975 की दीवार वाला विजय यानी अमिताभ बच्चन 2022 में भी विजय बनकर दीवारें तोड़ने की ही कोशिश में लगा हुआ है- फिर भी ग़रीबी की हो या जाति की.
निर्देशक नागराज मंजुले ने फ़िल्म झुंड में अपने अंदाज़ में समाज के जातिगत तानेबाने को बारीकी से उकेरा है और फिर उसे उधेड़ा भी है. बाबासाहेब अंबेडकर से लेकर जय भीम के नारों तक फ़िल्म का हर दूसरा फ्रेम संकेतात्मक बिंबो से भरा हुआ है.
झुंड में बहिष्कृत भारत कई बार सुनने को और देखने को मिलता है. ये इत्तेफ़ाक़ है या ये रेंफरेंस बाबा साहेब से लिया गया है कहना मुश्किल है.
दरअसल अप्रैल 1927 मेंबाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने अख़बार निकाला था 'बहिष्कृत भारत' ताकि समाज की दबी आवाज़ों को जगह दे सकें. उस अख़बार के करीब 90 साल बाद, आज भी बहिष्कृत भारत की चर्चा ख़त्म होती हुई नहीं लगती है.
जाति और समाज पर जिस तरह का ज़बरदस्त प्रहार और गहरा कटाक्ष नागराज की दूसरी फ़िल्में सैराट और फ़ैन्ड्री करती हैं, झुंड उससे कुछ कदम पीछे रहती हुई दिखती है. लेकिन इसमें दिखाई कड़वी सच्चाई सोचने को मजबूर ज़रूर करती है.
मसलन फ़िल्म के एक दृश्य में झुग्गी के बच्चों को इंटरनेशनल फ़ुटबॉल टूर्नामेंट के बारे में पता चलता है. एक छोटा बच्चा पूछता है कि ये इंटरनेशनल क्या होता है? जब उसको समझाते हैं कि इंटरनेशनल मतलब भारत से बाहर, तो वो पूछता है- भारत मतलब?
इस सीन को वहीं ख़त्म कर दिया जाता है लेकिन झुग्गी के उस बच्चे का मासूमियत भरा सवाल और कई गहरे सवाल छोड़ जाता है.
इस तरह के कई सिंबोलिज़म या प्रतीक पूरी फ़िल्म में देखने को मिलते हैं जो बॉलीवुड के गढ़े नैरेटिव को चुनौती देते हैं. जैसे फ़िल्मों में जब भी कोई सामूहिक उत्सव दिखाया जाता है तो कितनी बार आपने वो उत्सव बाबा साहेब भीमराव अंबडेकर जंयति के रूप में पर्दे पर देखा हो?
फ़िल्म में बस्ती के युवक न सिर्फ़ अंबडेकर जंयती धूमधाम से मनाते हैं बल्कि एक सीन में अमिताभ बच्चन बाबासाहेब की फोटो को प्रणाम करते हुए भी दिखते हैं. कहने को ये चंद सैकेंड का सीन है पर काफ़ी महत्वपूर्ण है.
'बाबा साहेब को दिखाना गर्व की बात'
नागराज मंजुले ने कहा था, "मैं बाबासाहेब की सोच और लेखनी को पढ़ता आया हूँ. मेरे लिए ये गर्व की बात थी कि फ़िल्म में बाबासाहेब को दिखा सका. ये पहली बार है कि कोई बड़ा हीरो हाथ जोड़कर बाबासाहेब के सामने खड़ा था. वो दुनिया के लिए बहुत बड़ी हस्ती हैं. वे एक लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी थे. मैं जब भी उनकी पेंटिंग देखता हूँ तो मुझे प्रेरणा मिलती है."
फ़िल्मों में अक्सर उत्सवों या मौकों पर जोरदार बीट वाला तड़क भड़क वाला गाना किसी ऊँची जाति के हीरो के लिए ही रखा जाता है. लेकिन झुंड में ये गाना इन दलित लड़कों के लिए रखा गया है- ज़माने की नज़र में तू भंगार है, तेरे सीने में कहीं तो वो अंगार है.
या फिर इस टाइटल गाने के बोल सुनिए
अपुन की बस्ती गटर में है पर तुम्हारे दिल में गंध है
गटर की नाली से, पब्लिक की गाली से, रास्ते पे आया ये झुंड है.
लोगों की फटगेली, बाजू में हटकेली, आया ये शेरों का झुंड है.
अमिताभ भट्टाचार्या के ये बोल बहुत कुछ कह जाते हैं और देखने वाला अपने हिसाब से इसके मायने निकाल सकता है - फिर वो गटर का ज़िक्र हो या नाली का.
अंकुश गेडाम, रिंकु राजगुरु जैसे पेशेवर और ग़ैर पेशेवर कलाकारों ने इस तरह काम किया है कि आप उनसे जुड़ा हुआ महसूस करते हो. खूबसूरत बात ये है कि अमिताभ बच्चन का सुपरस्टार वाला जलवा गौण ही रहता है और वो सारे किरदारों में घुलमिल से जाते हैं. यहाँ बता दें कि ये फ़िल्म एक असली किरदार पर आधारित है जिसे अमिताभ बच्चन ने निभाया है.
दूसरी फ़िल्मों से अलग है झुंड
फ़िल्म झुंड का पूरा ग्रामर बहुत सारी फ़िल्मों से अलग है जो नेटफ़्लिक्स और अमेज़ॉन प्राइम के धड़ाधड़ सीरिज़ वाले दौर में इसे थोड़ा धीमा बनाता है लेकिन कई विचार भी दिमाग़ में छोड़ जाता है.
भारत की पहचान और भारत की अवराधरणा को लेकर कई क्रिटिकल और टेढ़े सवाल फ़िल्म बहुत सीधे सरल तरीके से उठाती है. मसलन जब एक आदिवासी लड़की मोनिका ( सैराट की रिंकू राजूगुरु) स्लम वर्ल्ड कप के लिए चुनी जाती है तो उसे पासपोर्ट की ज़रूरत पड़ती है.
पोसपोर्ट यानी भारतीय होने की अपनी पहचान साबित करने के लिए वो मुश्किल और हास्यास्पद प्रक्रिया से गुज़रती है. डिजिटल इंडिया के बोर्ड और पहचान के संकट को बिना कुछ कहे जोड़ कर दिखाने की कोशिश की गई है.
आदमी की कोई क़ीमत ही नहीं है, थका हारा मोनिका का पिता कहता है जब भारत में ही जन्मी उसकी बेटी को कोई पहचान देने के लिए तैयार नहीं होता.
यही वजह है कि ये बच्चे कोच विजय बोराड़े ( अमिताभ बच्चन) से जुड़ाव महसूस करते हैं क्योंकि वो इन्हें इनकी अपनी अलग पहचान देने की कोशिश में लगा है. समाज के ऐसे बहिष्कृत बच्चे जिनकी कोई पूछ नहीं है.
फ़िल्म झुंड में अमिताभ बच्चन एक दिन झुग्गी के सारे बच्चों को अपने घर बुलाते हैं और सबकी कहानी सुनते हैं. तब एक युवक बाबू सिर्फ़ एक ही बात कहता है, "किसी ने नहीं पूछा आजतक."
तीन घंटे की लंबाई के बावजूद और कुछ फ़िल्मी टाइप के ट्विस्ट के बावजूद इस तरह के प्रतीक फ़िल्म को एक अलग अनुभव बनाते हैं.
नैरेटिव तोड़ने वाली फ़िल्म
समाज के अलग अलग लोगों को ही नहीं , भाषा की विविधता को भी देखना एक सुखद एहसास रहता है. मैंने शायद ही पहले गोंडी भाषा को किसी मेनस्ट्रीम फ़िल्म में सुना हो. ये भी अपने आप में नैरेटिव तोड़ने जैसा था. थिएटर में कुछ लोग गोंडी भाषा वाले संवाद पर हँस रहे थे तो ज़रूर वो ये भाषा समझते होंगे. इससे पहले फ़िल्म फ़ैंड्री में भी नागराज मंजुले ने एक स्थानीय बोली को जगह दी थी.
पिछली कई फ़िल्मों की तरह झुंड में भी एक छोटी सी घटना फ़िल्म के हीरो के लिए ट्रिगर का काम करती है. झुंड में दलित लड़का (अंकुश) ऊंची जाति का लड़के को घूरता है तो ये सामाजिक तौर तरीकों को चुनौती और अपराध बन जाता है. एक ऐसा जुर्म जिसके बाद दोनों में मारपीट होती है और नतीजा अंकुश को जेल.
वापस पलट कर घूरने जैसा सामान्य एक्शन भी जैसे एक तरह का प्रतीकात्मक बिंब था फ़िल्म में.
इसे खेल से जुड़ी फिल्म कहा जा सकता है लेकिन ये सामाजिक-राजनीतिक सरोकार वाली फ़िल्म भी है जिसमें जाति हो या जेंडर हो या नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़्न्स हो, सब पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सवाल उठाए गए हैं. अब आप उन सवालों से सहमत हो सकते हैं या असहमत या उन्हें सिरे से नकार सकते हैं.
फ़िल्म उम्मीदें जगाती भी हैं और मिटाती भी है. झुंड के एक सीन में बस्ती का लड़का और हीरो (अंकुश) ऊंची जाती और अमीर लड़कों के गैंग से उलझ जाता है क्योंकि वो चाहते हैं कि अंकुश पैर पर नाक रगड़े और माफ़ी माँगे. लेकिन अंकुश माफ़ी माँगने से मना कर देता है. मारपीट के बाद उसे जेल हो जाती है.
'हर जंग जीतना ज़रूरी नहीं'
जब अमिताभ बच्चन उससे मिलते आते हैं तो कहते हैं, हर बार जीतना ज़रूरी नहीं है. ये सलाह प्रेक्टिकल तो है लेकिन एक टिप्पणी भी है कि अगर आप समाज के वंचित वर्ग से हैं तो आपको कौन सी जंग लड़नी है ये सोच समझकर ही तय करना होगा. एक हार का सा एहसास होता है व्यावहारिक सलाह में.
फ़िल्म के आख़िर में हीरो सब बाधाओं को पार कर स्लम वर्ल्ड कप के लिए एयरपोर्ट पहुँच ही जाता है- जैसा कि किसी भी मसाला फ़िल्म में होता है. एयरपोर्ट के रास्ते में कोई भी इलाक़ा दिखाया जा सकता है लेकिन यहाँ चैत्य भूमि दिखाई गई है जो सीधे बाबासाहेब से जुड़ा हुआ प्रतीक है.
एयरपोर्ट पर उसे अपने से जुड़ी एक एक चीज़ बारी बारी से निकालनी पड़ती है - जूते, बेल्ट, बटुआ, कटर ..जो वो ड्रग्स और अपराध की अपनी दुनिया में साथ रखता है. मानो अपनी पुरानी पहचान परत दर परत उतार रहा हो और पीछे छोड़ रहा हो. फ़िल्म का अंतिम सीन भी बहुत प्रभावी है.
फ़िल्म के आख़िरी सीन में जब विमान उड़ान भरता है तो एक दीवार दिखाई देती है जो हवाईअड्डे को वहाँ की बस्तियों से अलग करती है और दीवार पर लिखा रहता है - दीवार को लाँघना मना है.
फ़िल्म की अपनी ख़ामियाँ हैं, कुछ ग़ैर वास्तविक से ट्विस्ट भी हैं लेकिन कई गहरे सवाल भी जो अक्सर पर्दे से ग़ायब रहते हैं.