क्रिकेट की दुनिया में मुश्किल को आसान बनाती ये क्रिकेटर्स?
ज़रा कल्पना कीजिए कि क्रिकेट के मैदान में कोई छड़ी से थर्ड मैन पर फ़ील्डर तैनात कर रहा हो। या फिर कोई बैकफ़ुट पर जाकर एक कट शॉट मारना चाह रहा हो, मगर फ़िर उसे एहसास हो कि उसके पांव तो हिलते ही नहीं।
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नामुमकिन लग रहा है न? लेकिन ये उन सुपर वुमेन के लिए नामुमकिन नहीं है, जिनके बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं।
26 बरस की तस्नीम, झारखंड के उस 'बदनाम' वासेपुर क़स्बे में पली-बढ़ी हैं, जहां किसी लड़की के लिए घर से बाहर क़दम रखना भी महफ़ूज़ नहीं माना जाता था।
बाहर खुले मैदान में खेलने का तसव्वुर तो कोई लड़की कर ही नहीं सकती थी। लेकिन, आज तस्नीम एक ऐसी स्कूल टीचर हैं जिनकी ओर सब बहुत उम्मीद भरी नज़र से देखते हैं।
उधर, 26 साल की ललिता, गुजरात के एक आदिवासी गांव में पली-बढ़ी हैं जिनके पास बस इतने संसाधन थे कि किसी तरह गुज़र-बसर हो जाती थी।
अब ललिता की एक नवजात बच्ची है जिसकी उन्हें देखभाल करनी होती है। लेकिन, आज भी ललिता के घर में टेलीविज़न नहीं है और बिजली भी कभी-कभार ही आती है।
तस्नीम और ललिता, देश के अलग-अलग हिस्सों में पैदा हुईं और पली बढ़ी हैं। एक की परवरिश तो हर दिन क्रिकेट मैच देखते हुए हुई है।
वहीं, दूसरी को कभी भी ये खेल देखने तक का मौक़ा नहीं मिला था। लेकिन, आज दोनों महिलाएं राज्य स्तर की क्रिकेटर हैं, जो भारत की पहली महिला विकलांग क्रिकेट टीम के लिए खेल चुकी हैं।
इन दोनों को आपस में जोड़ने वाली एक और बात है, और वो है पोलियो की बीमारी।
तस्नीम कहती हैं, "मैं बचपन से ही इरफ़ान पठान की बहुत बड़ी फ़ैन थी। मैं उनका एक भी मैच देखना नहीं छोड़ती थी। लेकिन मुझे अपनी कमतरी का एहसास था। मुझे लगता था कि स्टेडियम में जाकर कोई मैच खेलना तो दूर, मैं अपनी पोलियो की बीमारी के चलते कभी वहां एक मैच देखने भी नहीं जा सकूंगी।
''मुझे ज़िंदगी से शायद ही कोई उम्मीद थी। मैं बहुत निराश थी। लेकिन आज मेरे भीतर एक नया आत्मविश्वास है। लोग मुझे जानने लगते हैं।
भारत में तस्नीम और ललिता जैसी दर्जनों लड़कियां हैं जो अपनी शारीरिक कमज़ोरियों के बाद भी क्रिकेट खेल रही हैं जिसे अभी भी मर्दों के दबदबे वाला खेल माना जाता है।
भारत में 1.2 करोड़ विकलांग महिलाएं हैं। इनमें से लगभग 70 फ़ीसदी महिलाएं गांवों में रहती हैं। उनके पास ज़िंदगी में आगे बढ़ने के मौक़े, और उनकी अलग क्षमताओं के हिसाब से मददगार बुनियादी संसाधन तक नहीं हैं।
इन चुनौतियों के बाद भी आज इन महिला खिलाड़ियों ने इतनी सामर्थ्य जुटा ली है कि क्रिकेट के प्रति अपने जज़्बे को जी सकें। समाज की बंदिशों का मुक़ाबला करते हुए, अपने खेलने के शौक़ को पूरा करने के लिए ज़रूरी सामान जुटा सकें।
एक शहर से दूसरे शहर के बीच सफ़र कर सकें और, इससे भी अहम बात ये कि वो, समाज के एक तबक़े को तमाम चुनौतियों के बावजूद अपने लिए ख़्वाब देखने का हौसला दे सकें।
विकलांग महिलाओं की पहली क्रिकेट टीम
2019 में भारत की पहली महिला विकलांग क्रिकेट टीम का कैंप गुजरात में बड़ौदा क्रिकेट एसोसिएशन की मदद से लगाया गया था।
इस कोशिश के पीछे थे कोच नितेंद्र सिंह।
वो कहते हैं, "शारीरिक कमज़ोरियों वाली लड़कियों के अंदर ज़्यादा मज़बूत इच्छाशक्ति होती है। और, वो किसी सामान्य इंसान की तुलना में कहीं ज़्यादा शिद्दत से ख़ुद को साबित करने की कोशिश करती हैं।
''वो लगातार कुछ अलग करके समाज के ताने-बाने में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश करती रहती हैं, और इस प्रयास में अपनी ज़िंदगी को भी दांव पर लगाती हैं।
उस क्रिकेट कैंप ने मुट्ठी भर महिलाओं को एक नई राह दिखाई थी। कैंप की मदद से सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली लड़कियों की पहचान की गई और आख़िर में इससे भारत की पहली महिला विकलांग क्रिकेट टीम तैयार की गई।
हालांकि उसके बाद से शायद ही बात कुछ आगे बढ़ी हो। आज ज़्यादातर राज्य अपनी-अपनी महिला विकलांग क्रिकेट टीम तैयार करने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं।
सोर्स बीबीसी