यूरोप के इतिहास के महत्वपूर्ण लम्हे
1789: फ्रांस की क्रांति. राजशाही को उखाड़ फेंका गया और गणतंत्र की स्थापना हुई.
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1815: वियना सम्मेलन में यूरोप का नक्शा फिर से तैयार किया गया. शक्ति संतुलन बहाल किया गया और नेपोलियन के युद्धों से हुई उथल-पुथल के बाद दशकों तक की शांति की शुरुआत हुई.
1848: पूरे यूरोप में उदार और लोकतांत्रिक क्रांतियों की लहर.
1919: वर्साय की संधि. नए आज़ाद और संप्रभु राष्ट्र राज्य पुराने बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों की जगह ले लेते हैं.
1945: याल्टा में बड़ी शक्तियां यूरोप को पश्चिमी और सोवियत 'प्रभाव वाले क्षेत्रों' में बांटने पर सहमत हुईं. पूरे महाद्वीप में कठोर अलगाव हो गया.
1989: लोकतांत्रिक क्रांतियों ने सोवियत संघ के प्रभुत्व वाले पूर्वी यूरोप में सख़्त अलगाव को ख़त्म कर दिया. इसके दो साल बाद सोवियत संघ का पतन हो गया. व्लादिमीर पुतिन ने इसे '20वीं सदी की सबसे बड़ी तबाही' क़रार दिया है.
रूस की बमबारी पर उनका कहना है: "यदि ये रणनीति आपके लिए अनजान है, तो आप घटनाओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं."
उन्हें निश्चित रूप से पता होगा, उन्होंने सीरिया में बहुत क़रीब से रूसी रॉकेटों के हमलों के साए में काफ़ी वक़्त बिताया है. हालांकि सवाल ये है कि दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारें पुतिन सरकार के तौर-तरीक़ों पर कितना ध्यान दे रही हैं?
इसके लक्षण तो कई सालों से दिख रहे थे.
उस बात को तो दो दशक बीत चुके हैं, जब रूस ने ये दावा करते हुए अपने सैनिकों को जॉर्जिया भेजा था कि वो अलग हुए इलाक़ों का समर्थन करते हैं.
बाद में उन्होंने निर्वासित रूसियों की हत्या के लिए ज़हरीली गैसों से लैस जासूसों को ब्रिटेन भेजा था.
2014 में उन्होंने पूर्वी यूक्रेन पर हमला किया और क्रीमिया पर भी क़ब्ज़ा कर लिया.
इन सबके बावजूद जर्मनी और यूरोपीय यूनियन के ज्यादातर देश ख़ुद को रूस के गैस पर अपनी ख़तरनाक निर्भरता बढ़ा रहे थे. क्रीमिया पर क़ब्ज़े के एक साल बाद उन्होंने गैस की सप्लाई बढ़ाने के लिए एक नई पाइपलाइन 'नॉर्ड स्ट्रीम 2' बनाने को अपनी मंज़ूरी दी.
इस 'संतुष्टि भाव' पर लिज़ ट्रूस अपने देश पर भी अंगुली उठाती हैं. जॉन मेजर के प्रधानमंत्री बनने के बाद से लंदन रूसी धन की एक सुरक्षित पनाहगाह बन गया.
रूस के रईसों ने यहां अरबों डॉलर जमा किया और यहां अपना पैसा लुटाया. इन पैसों से लंदन में सबसे आलाशीन घर ख़रीदे गए, नेताओं के साथ घनिष्ठता बढ़ाई गई और उनके चुनाव अभियान के लिए फंड दिया गया. लेकिन शायद ही कभी सवाल पूछे गए कि उनके पास अचानक से इतनी ज़्यादा दौलत कहां से आई.
लेकिन नहीं, पश्चिमी देश अपनी पूर्वी सीमा पर पैदा हो रहे ख़तरे के संकेतों पर 'ध्यान नहीं दिया.' हालांकि पुतिन भी आत्मसंतुष्ट दिख रहे हैं.
सबसे पहली बात ये कि पुतिन का मानना है कि पश्चिम लगातार पतन की ओर जा रहा है और भीतरी बंटवारे और अपने वैचारिक संघर्ष से कमज़ोर हो रहा है.
डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव और ब्रेक्ज़िट को उन्होंने इसकी निशानी माना है. पोलैंड और हंगरी में दक्षिणपंथी निरंकुश सरकारों का बनना उदार मूल्यों और संस्थानों के बिखरने का एक और सबूत है. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की शर्मनाक वापसी दुनिया में उनकी घटती ताकत का सबूत है.
दूसरी बात ये कि पुतिन यह समझने में ग़लती कर रहे हैं कि रूस की सरहदों पर क्या हो रहा है. उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि पहले के सोवियत गणराज्यों जैसे जॉर्जिया (2003), यूक्रेन (2004-05) और किर्गिस्तान (2005) में हुए तमाम लोकतांत्रिक विद्रोह शायद जनभावना की वास्तविक अभिव्यक्ति हो सकती है. क्योंकि सबका मक़सद बेईमान, अलोकप्रिय और मास्को समर्थक सरकारों को हटाना था.
क्रेमलिन को स्वाभाविक रूप से ऐसा लगा कि ये सभी विद्रोह विदेशी ख़ासतौर से अमेरिका और ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसियों का काम था. उनके अनुसार, यह पश्चिमी साम्राज्यवाद का उस क्षेत्र में पांव पसारना है, जबकि ऐतिहासिक लिहाज से ऐसा करने का अधिकार रूस का है.
तीसरी बात कि वो अपने ख़ुद के सशस्त्र बलों का आकलन करने में विफल रहे हैं. अब यह साफ़ हो गया है कि रूस को उम्मीद थी कि ताज़ा 'विशेष सैन्य अभियान' महज कुछ ही दिनों में पूरा हो जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
रूस की सैन्य अक्षमता ने पश्चिम के कई सुरक्षा विशेषज्ञों को अचंभे में डाल दिया है. यह मुझे पूर्वी यूगोस्लाविया में एक छोटे और अधिक आसानी से जीते जा सकने वाले युद्ध, जो काफ़ी विनाशकारी साबित हुआ था, उसकी याद दिलाता है.
1992 में सर्ब राष्ट्रवादियों ने अस्तित्व में आए नए आज़ाद मुल्क बोस्निया का गला घोंटने के लिए युद्ध छेड़ा था. उनका तर्क था कि बोस्नियाई पहचान झूठी पहचान है और बोस्निया की कोई ऐतिहासिक वैधता नहीं थी. वो मानते थे कि बोस्निया असल में सर्बिया का ही हिस्सा है. यह यूक्रेन पर पुतिन के नज़रिए जैसा ही मामला था.
आज के रूस की तरह, सर्ब बलों ने गोलाबारी में बढ़त बना ली. लेकिन जहां भी स्थानीय ग़ैर-सर्बों ने प्रतिरोध किया सर्बों को उन अधिकांश मामलों में पीछे हटना पड़ा. वे क़स्बों या शहरों पर क़ब्ज़ा करने में नाकाम हो रहे थे. वे सड़क-दर-सड़क पैदल लड़ने को तैयार नहीं थे.
उनका विरोध कर रहे बोस्नियाई शुरू में बहुत अच्छे तरीक़े से हथियारों से लैस थे. मुझे सराजेवो की खंदकों में टेनिस के जूते पहने लड़ाके याद हैं, जिनमें से तीन के बीच एक ही एके-47 थी. लेकिन उन लोगों ने क़रीब चार सालों तक अपनी राजधानी की हिफ़ाज़त की थी.
कीएव की हिफ़ाज़त के लिए अपनी मर्ज़ी से डटे नौजवानों में भी ऐसा ही संकल्प दिख रहा है.
इसलिए सर्बों ने शहरों और क़स्बों पर क़ब्ज़ा करने की बजाय उनकी घेराबंदी की. उन्हें घेरकर उन पर बम बरसाए. पानी, गैस और बिजली की आपूर्ति काट दी. मारियुपोल में भी यही हो रहा है. एक शहर को घेर लें और उसकी पानी की आपूर्ति काट दें. और 24 घंटों के भीतर, हर शौचालय आम लोगों की सेहत के लिए एक ख़तरा बन जाता है.
नागरिकों को पानी के हैंडपंप खोजने के लिए सड़कों पर जाना पड़ता है और अपने शौचालयों को फ्लश करने के लिए बर्तनों में पानी भर करना लाना पड़ता है. बिजली की आपूर्ति काट देने पर आम लोग अपने ही घरों में ठंड से मर जाएंगे. जल्द ही खाना भी ख़त्म हो जाता है.
क्या मारियुपोल, खार्कीएव, कीएव के लिए भी रूसियों का यही इरादा है कि उन्हें झुकाने के लिए उन्हें भूखों रखा जाए?
हालांकि क्रूरता के क़रीब चार सालों ने बोस्नियाई राष्ट्रीयता को प्रतिरोध, पीड़ा और वीरता भरे संघर्ष की एक यादगार महागाथा दे दी. यूक्रेन के लोगों ने जिस तरह से संघर्ष किया है, उससे यूक्रेन की पहचान भी और मज़बूत होगी.
यूक्रेन के रूसी भाषी लोगों ने भी इस हमले से 'आज़ाद किया हुआ' महसूस नहीं किया है.
इसका सबूत ये है कि वे भी यूक्रेन को एक संप्रभु राज्य मानते हैं. पुतिन के इस युद्ध का, जिसे वे रूसी राष्ट्र के दो हिस्सों को फिर से रूस का हिस्सा बनाने के तौर पर देखते हैं, पहले से ही उल्टा असर पड़ रहा है. रूस की दबंगई से यूक्रेन के लोगों में आज़ादी की तलाश की ख़्वाहिश और मज़बूत ही हो रही है.
1994 में बाल्कन युद्ध जब चल ही रहा था, बाक़ी पूर्वी यूरोप भविष्य की ओर देख रहा था. हर राष्ट्र स्वतंत्र संप्रभु राज्यों के समूह यूरोपीय संघ में शांति के साथ रहने के लिए अपनी जगह हासिल करने को लेकर उतावले था. लेकिन अभी भी ये पक्का नहीं था कि उनमें से किसी को नाटो में शामिल होने की इजाज़त मिलेगी भी या नहीं.
उस समय इस बात पर भी बहस चल रही थी कि क्या पूर्वी यूरोप के नए आज़ाद हुए देशों को मिलाकर रूस और नेटो के बीच एक बफ़र ज़ोन बनाने के लिए किसी तीसरे सिक्योरिटी ब्लॉक को बनाया जाए या नहीं.
1990 के दशक में रूस कमज़ोर था और जिन राष्ट्रों ने 40 साल तक सोवियत क़ब्जे़ को बर्दाश्त किया था, वे रूस के लंबे समय तक कमज़ोर रहने का भरोसा नहीं करते थे. कुल मिलाकर, वे नेटो की सदस्यता से कम पर राज़ी नहीं थे.
अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के शासन में अमेरिका ने नेटो के विस्तार को आगे बढ़ाया. रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन, जिन्होंने ख़ुद को क्लिंटन के एक वफ़ादार सहयोगी के रूप में पेश किया था, को जब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पता चला कि मास्को से सलाह किए बिना नेटो नए सदस्य बनाने की योजना बना रहा है, तो वो ग़ुस्से से भर उठे थे.
और जब यथास्थिति ख़त्म हुई तो जियोपॉलिटिक्स में एक नया सवाल खड़ा हुआ कि पश्चिमी दुनिया पूरब में कितनी दूर तक फैली है?
बीबीसी ने मुझे एक सवाल के साथ पोलैंड, बेलारूस और यूक्रेन की रोड ट्रिप सौंपी थी. और वो सवाल था- "पश्चिमी दुनिया का पूर्वी किनारा अब कहां है?"
मैं 1991 के अंत में बेलारूस में शिकारियों की लॉज में पहुंचा, जहां रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन, यूक्रेन और बेलारूस के अपने समकक्षों से मिले.
वहां वे सोवियत गणराज्यों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने को तैयार हुए थे. उसके बाद उन्होंने सोवियत नेता मिख़ाइल गोर्बाचेव को फोन मिलाया और उन्हें ख़बर दी कि वे जिस सोवियत संघ के राज्य प्रमुख हैं, वो अब अस्तित्व में नहीं रहा.
वो लम्हा इतना नाज़ुक था, जो ख़तरों और मौक़ों दोनों से भरा था. बेलारूस और यूक्रेन के लिए वो वक़्त रूसी शासन, बात चाहे ज़ार शासन की हो या सोवियत संघ की, से ख़ुद को आज़ाद करने का एक मौक़ा था.
बोरिस येल्तसिन की नज़र से देखें तो वो समय रूस के लिए भी साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में अपनी ऐतिहासिक भूमिका से निजात पाने का एक मौक़ा था.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस दोनों साम्राज्यवादी शक्ति नहीं रह गए थे. और पहले विश्वयुद्ध के बाद ऑस्ट्रिया ने भी यही किया था.
1918 में बहु-जातीय आटोमन साम्राज्य की हार और उसके कई हिस्सों में टूटने के बाद तुर्की में कमाल अतातुर्क ने एक आधुनिक यूरोपीय धर्मनिरपेक्ष गणराज्य यानी तुर्की को खड़ा किया था.
बोरिस येल्तसिन भी सोवियत साम्राज्य के खंडहरों पर अपने संप्रभु पड़ोसियों के साथ मिलकर शांति से आधुनिक रूस का निर्माण कर सकते थे?
उन्होंने 90 के दशक की शुरुआत में एक साम्राज्यवादी शक्ति को लोकतांत्रिक देश में बदलने की कोशिश शुरू की और इसके लिए अपने देश का पश्चिमीकरण करने का प्रयोग शुरू किया.
लेकिन निवेश के अवसरों के लिए उतावले पश्चिमी देशों के प्रोत्साहन से सरकार के मालिकाना हक़ वाली एक अर्थव्यवस्था को मुक्त-बाज़ार प्रणाली में बदलने की हड़बड़ी तबाही लेकर आई. इसने लूट आधारित पूंजीवाद का निर्माण किया.
एक छोटा अभिजात्य वर्ग, प्रमुख उद्योगों ख़ासतौर से तेल और गैस की संपत्ति लूटकर बेहिसाब दौलत का मालिक हो गया.
कई प्रयोगों का पहिया आख़िरकार 1998 में पटरी से उतर ही गया. अर्थव्यवस्था तबाह हो गई. रूबल का मूल्य एक महीने में दो-तिहाई गिर गया और महंगाई दर 80 फ़ीसदी तक जा पहुंची.
मैं मॉस्को के एक बैंक में अधेड़ उम्र के एक जोड़े के साथ लाइन में खड़ा था. वे अपना पैसा रूबल छोड़कर डॉलर या पाउंड किसी भी करेंसी में निकालना चाहते थे. लाइन बहुत लंबी थी और धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी.
वहां हर कुछ मिनट बाद बैंक का कर्मचारी डिसप्ले बोर्ड पर रूबल की विनिमय दर को बदल रहा था, क्योंकि रूबल की क़ीमत तब तक और गिर चुकी होती थी.
लोग अपनी ज़िंदगी भर की बचत को मिनटों में मिट्टी होते देख रहे थे. वो जोड़ा लाइन के शुरुआती सिरे पर पहुंचा ही था कि अचानक से शटर को बंद कर दिया गया. बैंक में नक़दी ख़त्म हो चुकी थी.मैं यूक्रेन की सीमा के पास स्थित कोयला के एक पुराने खान में गया, जहां खदान में बहुत काम हो रहा था. वहां मैं एक माइनिंग इंजीनियर से मिला, जिसकी नौकरी चली गई थी. उम्र के चौथे दशक में उस शख़्स के कंधों पर बड़े होते बच्चों की पालने की ज़िम्मेदारी थी.
वो मुझे शहर के बाहर अपने घर ले गया, जहां उनकी क़रीब एक एकड़ ज़मीन थी.
उन्होंने मुझे बताया, "साल में मेरा परिवार जो खाता है, उसका क़रीब 80 फ़ीसदी मैं इस जमीन पर उगाता हूं. बाक़ी चीज़ें जैसे कि कॉफी और चीनी मैं अपनी फसलों से बदल कर लाता हूं. मैंने क़रीब 18 महीने से नक़दी का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि इस दौरान नकदी देखी भी नहीं."
रूस को बदलने में येल्तसिन की नाकामी इससे और दमदार तरीक़े से जाहिर नहीं हो सकती थी कि वो उच्च शिक्षित शख़्स ख़ुद के खाने के लिए वहां खुदाई कर रहा था.
उन्होंने मुझसे कहा, "स्टालिन ने किसानों के देश को एक ही पीढ़ी में औद्योगिक महाशक्ति में बदल दिया. येल्तसिन वही काम उल्टी दिशा में कर रहे हैं."
रूस के आम इंसान ने ख़ुद को लुटा-पिटा महसूस किया. पश्चिमीकरण का विशाल प्रयोग एक छलावा था, जिसने आपराधिक क़दम उठाने वाले रईस वर्ग को और अमीर बना दियास, जबकि बाक़ी सभी नागरिकों को ग़रीब बना दिया.
उस समय रूस से हमने जो रिपोर्टें भेजीं, उनमें से कई एक ही सवाल पर ख़त्म होती थीं: "रूस के लोग अब जो तगड़ा मोहभंग महसूस कर रहे हैं, उसके राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?"
इसका जवाब यही था कि रूस आख़िरकार अपने पुराने खोल में फिर से वापस आ गया है. मतलब लोकतंत्र से वे पीछे हट गए और निरंकुश शासन की फिर से वापसी हो गई. राष्ट्र-राज्यों के दिए दर्जें वापस ले लिए गए और पूर्व सोवियत संघ के सदस्यों के लिए ज़्यादा मुखर साम्राज्यवादी रवैये भी अपनी जगह आ गए.
अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री ज़बिग्न्यू ब्रज़ेज़िंस्की का इस बारे में मशहूर बयान है- ''रूस एक लोकतंत्र या साम्राज्य हो सकता है, लेकिन वो दोनों नहीं हो सकता.''
रूस का राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न यानी दो सिर वाला चील, पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में देखता है. इतिहास ने रूस को विपरीत दिशाओं में खींच लिया- एक तरफ़ लोकतांत्रिक राष्ट्र का दर्जा है, तो दूसरी ओर दबदबा बनाने वाला साम्राज्यवादी शासन.
यदि आप सेंट पीटर्सबर्ग जाएं तो इस दोहरे चरित्र का एक और पहलू देखेंगे. वहां फिनलैंड की खाड़ी की तरफ़ खुलने वाली देश की विशाल खिड़की है. पश्चिम की ओर मुंह किया वह 18वीं सदी का शहर है. स्थापत्य कला में वह यूरोपीय ज्ञान का श्रेष्ठ प्रदर्शन है. ज़ार के अधीन वह साम्राज्य की राजधानी थी.
1917 की रूसी क्रांति के बाद बोल्शेविक, राजधानी को वापस मास्को ले गए और सत्ता क्रेमलिन की ऊंची, किलेबंद दीवारों के पीछे जा पहुंची.
क्रेमलिन रक्षात्मक, शक़ और डर की वास्तुकला है. वहां से जब रूसी नेता पश्चिम की ओर देखते हैं, तो वे सपाट खुले देहाती इलाकों को दक्षिण और पश्चिम में सैकड़ों मील तक लुढ़कते हुए देखते हैं. कहीं कोई प्राकृतिक सीमा नहीं है.