सऊदी अरब-अमरीका या रूस-ईरान, भारत को किसके साथ होना चाहिए?
विश्व के राजनीतिक पटल पर एक तरफ़ अमरीका-सऊदी अरब और इजरायल हैं, दूसरी तरफ़ रूस-ईरान और चीन। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि भारत को किसकी साइड लेनी चाहिए।
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हाल के समय में मध्य पूर्व में दो बड़ी राजनीतिक घटनाए घटी हैं। इन घटनाओं का जहां विश्व स्तर पर प्रभाव होगा, वहीं भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा।
एक तरफ़ अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन का पश्चिमी एशिया का बहूप्रतीक्षित दौरा था। जिसमें उन्होंने इजरायल और सऊदी अरब के नेताओं से मुलाकात की। हालांकि इन दोनों देशों के खराब मानवाधिकार रिकार्ड के देखते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उनके इस दौरे खास तौर से बिन सलमान के साथ मुलाकात की निंदा की है।
अपने इस दौरे पर बाइडन का लक्ष्य सऊदी अरब को इजरायल के साथ संबंध को सामान्य करने के रास्ते पर आगे लाना था। और साथ ही यूक्रेन युद्द के बाद विश्व स्तर पर तेल के बढ़ते दाम और ऊर्जा संकट के बीच सऊदी अरब के तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए मनाना था।
बाइडन ने इजरायल से अपने दौरे की शुरूआत की और शुक्रवार के दिन जद्दा पहुँचे। बाइडन ने दौरे से पहले कहा था कि वह केवल सऊदी अरब के किंग से मुलाकात करेंगे, उनकी मुलाकात में क्राउन प्रिंस बिन सलमान से मुलाकात या वार्ता का कोई प्रोग्राम नहीं था। लेकिन जब जद्दा पहुँचे तो दोनों के बीच तीन घंटे से अधिक की वार्ता हुई
दोनों नेताओं के बीच विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई। बाइडन ने सऊदी अरब की दुखती रग पर हाथ रखते हुए मानवाधिकार का मुद्दा उठाया और पत्रकार जमाल खगोशी की हत्या पर अपनी राय रखी।
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अमरीका और मानवाधिकार मुद्दे
अगर देखा जाए तो जमाल खगोशी की हत्या, अमरीका के लिए सऊदी अरब के विरुद्ध "दबाव टूल" बन गया है। इस मुद्दे को मानवाधिकार के रूप में उठाते हुए सऊदी अरब के विरुद्ध कार्यवाही करने के बजाए अमरीका ने हमेशा इसका लाभ उठाने की कोशिश की है।
पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी इसी मुद्दे को हथियार बनाते हुए सऊदी अरब को दुहा था, और अब बाइडन ने भी यही कोशिश की थी। लेकिन ऐसा लगता है कि सऊदी अरब इस बार दूसरे मूड में है। जब बाइडन ने खगोशी हत्या का मुद्दा उठाया तो सऊदी अरब ने भी दो टूक कह दिया कि उसे अमरीका का दोहरा मानदंड स्वीकार नहीं है। अमरीका ने इजरायल द्वारा अबू अकलेह की हत्या पर क्या रुख अपनाया था?
बाइडन द्वारा तेल उत्पादन बढ़ाने की मांग को भी सऊदी अरब ने नकार दिया और कहा कि तेल का उत्पादन बढ़ाने का कोई भी फैसला ओपेक के अंतर्गत ही लिया जाएगा। हालांकि बड़ा प्रश्न यह है कि अगर सऊदी अरब अमरीका की बात मान भी लेता तो क्या वह तेल उत्पादन बढ़ाने की स्थिति में है?
विश्लेषकों का मानना है कि यमन की अंसारुल्लाह के सऊदी तेल साइटों विशेषकर आरामको के तेल प्लांटों पर ड्रोन और मीसाइल हमलों के बाद सऊदी अरब के तेल उत्पादन की क्षमता प्रभावित हुई है, और सउदी अरब तेल उत्पादन बढ़ाने की स्थिति में नहीं है। भारत सऊदी अरब से बड़ी मात्रा मे तेल आयात करता है।
इन दोनों मुद्दों पर मुह की खाने के बाद बात करते हैं सऊदी अरब को इजरायल के साथ संबंधों को सामान्य करने के लिए मनाने के लक्ष्य पर। हालांकि यह पूरी दुनिया जानता है कि सऊदी अरब के इजरायल के साथ गहरे गोपनीय संबंध हैं। दोनों देश खुफिया जानकारियों और सैन्य स्तर पर एक दूसरे का सहयोग करते रहे हैं। इजरायल की बहुत सी कंपनियां सऊदी अरब में कारोबार कर रही है। लेकिन सऊदी अरब ने खुलेआम इस चीज़ को कभी स्वीकार नहीं किया है।
बाइडन के इस लक्ष्य पर भी सऊदी अरब ने साफ़ कर दिया है कि जब तक फिलिस्तीन का मुद्दा हल नहीं होता है इस बारे में कोई भी फैसला नहीं लिया जाएगा।
रूस-ईरान और चीन
बाइडन की यात्रा के तुरंत बाद रूस के राष्ट्रपति पुतिन ईरान की यात्रा पर पहुँचे। पुतिन की इस यात्रा को बाइडन की यात्रा के समानांतर देख जाने की आवश्यकता है। और इस यात्रा के जहां वैश्विक स्तर पर प्रभाव होंगे, वहीं भारत पर भी प्रभाव पड़ेंगे।
इस मोर्चे में एक तरफ़ रूस है जो सैन्य स्तर पर विश्व की बड़ी शक्ति है। और भारत अपनी सैन्य जरूरतों का 60 से 70 प्रतिशत तक साज़ो सामान रूस से आयात करता है। हाल ही में भारत ने रूस से एस 400 डिफेंस सिस्टम खरीद का भी समझौता किया है।
हालांकि भारत अपने सैन्य भंडार में विविधता लाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सैन्य विश्लेषकों के अनुसार भारत रूस से मुंह मोड़ने का रिस्क नहीं ले सकता है। क्योंकि रूस के हथियार जहां कीमत के लिहाज़ से भारत को सस्ते मिलते हैं, वहीं टेक्नॉलॉजी भी मिलती है, और अब तक के इतिहास में रूस ने साबित किया है कि वह भारत का भरोसेमंद साझीदार है। उसके मुकाबले में अमरीका और पश्चिमी देशों से हथियार का आयात न केवल मंहगा पड़ता है बल्कि यह भरोसेमंद भी नहीं है। जैसा कि पाकिस्तान के साथ युद्ध में जब भारत ने अमरीका से हथियार मांगे थे तो अमरीका ने हथियार देने से इनकार कर दिया था।
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और अगर आज के परिदृष्य में भी देखा जाए तो भारत को पूरी तरह से अमरीका और पश्चिम पर भरोसा करने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इन देशों ने यूक्रेन युद्ध में दिखा दिया कि वह कहते हुछ हैं और करते कुछ और हैं। बड़े बड़े दावे करने वाले इन देशों ने यूक्रेन की सुरक्षा के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया, केवल कुछ हथियार दिए और वह भी पहुँचने में इतना टाइम लगा की रूस बहुत आगे तक बढ़ चुका था।
इस खैमे का दूसरा बड़ा खिलाड़ी चीन है। आर्थिक स्तर पर चीन अमरीका के बाद सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। विश्व मार्केट में अमरीका को कड़ी टक्कर दे रहा है। बल्कि विश्लेषकों का तो यह मानना है कि आर्थिक युद्ध में चीन अमरीका को पछाड़ चुका है। अब अगर भारत को अमरीका और चीन में से किसी एक को चुनना हो तो वह अमरीका को चुनने की गलती नहीं कर सकता है। यह सही है कि चीन के साथ लगती सीमा पर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं, लेकिन अगर इनको सुलझा लिया जाए तो, कोरोना और नोटबंदी के बाद संकट से जूझती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चीन का साथ संजीवनीबूटी का काम कर सकता है। साथ ही अगर सीमा विवाद को भी रूस और ईरान की सहायता से निपटाया जा सकता है, क्योंकि यह दोनों ही देश चीन के करीबी सहयोगी है।
इस खैमे का तीसरा और बहुत अहम खिलाड़ी ईरान है। ईरान मध्य पूर्व में एक बड़ी सैन्य शक्ति है और स्ट्रैटेजिक रूप से बहुत अहम जगह पर स्थिति है। भारत ईरान के महत्व को समझता है। दोनों देशों के ऐतिहासिक रूप से दोस्ताना संबंध रहे हैं। भारत ईरान में चाबहार पोर्ट को भी विकसित कर रहा है।
अगर देखा जाए तो फिलहाल ईरान के साथ भारत के संबंध जैसे होने चाहिए वैसे नहीं है। अमरीका के दबाव में आकर भारत ने ईरान के साथ तेल के आयात को न्यूनतम कर दिया है। विश्व स्तर पर तेल के बढ़ते दामों के बीच जैसे रूस भारत को तीस प्रतिशत की छूट के साथ तेल बेच रहा है, अगर वैसा ही कोई समझौता भारत ईरान के साथ करने में सफल होता है तो यह भारत की अर्थव्यवस्था को बूस्ट कर सकता है। तेल के बढ़ते दामों के कारण देश में महंगाई अपनी चरम सीमा पर है।
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तेल के साथ ही भारत ईरान के साथ सैन्य स्तर पर भी सहयोग कर सकता है। भारत विश्व का बड़ा सैन्य साज़ो सामान का आयातकर्ता देश है। लेकिन अगर वह ईरान जैसे देशों को अपने हथियारों का निर्यात करने में सफल होता है तो विश्व स्तर पर निर्यातक देशों में शामिल हो सकता है, जो उसकी अर्थव्यवस्था के पहिये को तेज़ कर देगा।
साथ ही भारत ईरान से ड्रोन की खरीदारी कर सकता है। ईरान ड्रोन के क्षेत्र में दुनिया की मुख्य शक्तियो में से हैं। विभिन्न प्रकार के ड्रोनों का निर्माण और उनका सफल संचालन करके ईरान ने इस क्षेत्र में अपनी दक्षता को साबित कर दिया है। ईरान के ड्रोनों ने आज़बाइजान और अरमानिया के युद्ध में आज़बाइजान को निर्णायक बढ़त दिलाई। यह ईरान की ड्रोन टेक्नालॉजी ही थी जिसने यमन युद्ध में सऊदी अरब को घुटने टेकने पर विवश कर दिया। खबर यह भी है कि पुतिन अपने तेहरान दौरे पर ईरान के साथ ड्रोन की खरीदारी पर भी बातचीत कर सकते हैं। अगर ऐसा कोई समझौता होता है तो ईरान के ड्रोन बहुत जल्द यूक्रेन के आसमानों में उड़ते हुए दिखाई दे सकते हैं।
विश्व में युद्ध के बदलते तरीकों को देखते हुए ड्रोन आज की अहम ज़रूरत हैं। और चूँकि भारत चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मन अपने पड़ोस में रखे हुए है, इसलिए ड्रोनों का होना उसकी ज़रूरत बन जाती है। यह ड्रोन न केवल उसकी सैन्य ज़रूरतों को पूरा करेंगे बल्कि यह निगरानी और ज़रूरत पड़ने पर शत्रु के ठिकानों पर हमला करने के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। अभी तक भारत पारंपरिक हथियार ही रखता आया है, लेकिन आगामी किसी भी युद्ध में ड्रोन बड़ी भूमिका निभाएंगे। और ईरान इस क्षेत्र में भारत के लिए मुख्य सहयोगी हो सकता है। बस ज़रूरत इस बात की है भारत अमरीका के दबावों से बाहर निकलकर कदम बढ़ाए।
भारत किसकी तरफ़?
भारत ने राजनीतिक स्तर पर ऐसी रणनीति अपनाई है कि उसने तमाम विरोधाभासों को एक स्थान पर जमा कर दिया है। इसे भारत की कूटनितिक सफलता कहा जा सकता है कि जहां उसके सऊदी अरब के साथ संबंध है, वहीं सऊदी अरब के कट्टर शत्रु ईरान के साथ भी घनिष्ट संबंध है। और उसने इन दोनों संबंधों को मैनेज किया हुआ है।
भारत अपनी विदेश नीति में तटस्था का नियम अपनाता है और यही उसकी सफलता का राज़ है। यूक्रेन युद्ध में अमरीका और पश्चिमी देशों के तमाम दबावों के बावजूद उसने अपना अलग रुख रखा। और इसके लिए कभी भी रूस की निंदा नहीं की। अमरीका के साथ संबंधों को बढ़ाए हुए है तो रूस से सैन्य साज़ोसामान खरीद रहा है। ईरान से तेल खरीद रहा है तो इजरायल के साथ संबंध मधुर बनाए हुए है।
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लेकिन अगर इन दोनों मोर्चो (अमरीका-इजराय-सऊदी अरब और रूस-ईरान-चीन) में से किसी एक का चुनाव करना हो तो आज के हालात यह कहते हैं कि पलड़ा रूस-ईरान-चीन का भारी है।
अमरीका सैन्य स्तर पर कमज़ोर हो रहा है। थॉमस फ्रीडमैन ने पिछले साल तुर्की के अखबार "मेलिट" के साथ एक साक्षात्कार में स्वीकार किया: "हमारे पास अब सीरिया जैसे संकटों में सैन्य हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं है, यहां तक कि एक अंगुली के बराबर भी नहीं।
अमरीका एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुका है, जहां उसे अपनी आंतरिक समस्याओं को हल करने की आवश्यकता है। अमरीकी लोग कम सेवाओं के लिए अधिक कीमत चुका रहे हैं, और अब पहले से कहीं अधिक यह प्रश्न पूछते हैं कि दुनिया के एक निश्चित क्षेत्र में हमारी सेना क्या कर रही है?
इज़राइल ने पिछले चार वर्षों में अभूतपूर्व संकटों का सामना किया है। इस शासन की कैबिनेट को चार बार भंग करना पड़ा है। गाजा युद्ध में हार, ईरान की शक्ति में वृद्धि और हिजबुल्लाह की क्षमताओं, और इजरायल में आंतरिक विवादों के तेज होने के कारण दो पूर्व प्रधानमंत्रियों (एहूद बराक और नफ्ताली बेनेट) ने चेतावनी दी है कि इजरायल 80 साल के अभिशाप में फंस गया है। और बहुत संभव है कि यह शासन अपने जीवन के आठवें दशक के अंत तक अस्तित्व बनाए नहीं रख पाएगा। इजरायल की सुरक्षा रिपोर्ट में इस शासन के आंतरिक विवादों को एक बड़े खतरे के रूप में वर्णित किया गया है।
तीसरा पक्ष सऊदी अरब है, जो अपने को अरब दुनिया का "भाई" कहता रहा है, लेकिन यमन, सीरिया, लेबनान और फिलिस्तीन में उसे कड़वी हार का सामना करना पड़ा। यह कहा जा सकता है कि सऊदी सरकार, जिसने अपना कंट्रोल महत्वाकांक्षी और अनुभवहीन क्राउन प्रिंस के हाथों में सौंप दिया है, अमरीका और इज़राइल के साथ जोखिम भरे संबंधों में मुख्य हारने वाला है।
इन हालात को देखते हुए भारत किसके साथ जाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।