समिति ने पाया कि दिल्ली पुलिस नेतृत्व को 23 फ़रवरी को विशेष शाखा और ख़ुफ़िया इकाइयों से कम से कम छह आंतरिक चेतावनी प्राप्त हुई थीं, इसके बावजूद भी अतिरिक्त बलों की तैनाती 26 फरवरी को की गई। अलर्ट में चेतावनी दी गई थी कि समुदायों के बीच हिंसा बढ़ सकती है।
समिति ने कहा कि गृह मंत्रालय द्वारा दिखाए गए कथित ढुलमुल रवैये ने अप्रत्यक्ष रूप से दंगाइयों को तीन दिन अनियंत्रित तरीक़े से लक्षित हिंसा फैलाने में मदद की।
आरोप-पत्र में कहा गया है कि हिंसा के पहले तीन दिनों में जब प्रभावित क्षेत्रों से मदद के लिए अधिकतम फोन (डिस्ट्रेस कॉल) आ रहे थे, तब दिल्ली पुलिस और केंद्रीय पुलिस बलों के कर्मियों की संख्या 1,400 से कम थी। 26 फरवरी को जब पूर्वोत्तर दिल्ली के कई हिस्सों में हिंसा काफी हद तक नियंत्रण में थी, तब बलों की तैनाती बढ़ाकर 4,000 की गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तव में, 24 फ़रवरी को नागरिक पुलिस और अर्धसैनिक बल दोनों की संख्या 23 फरवरी की तुलना में कम थी। 26 फरवरी को ही तैनाती में वृद्धि हुई थी, जबकि यह वो दिन था जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने स्थिति के नियंत्रण में होने का ऐलान किया था।
समिति ने अपने रिपोर्ट में कहा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह झूठा माहौल बनाया कि ‘स्थिति नियंत्रण में थी।
समिति ने यह भी कहा कि हिंदुत्व कार्यकर्ताओं के नेतृत्व वाली हिंसा में पुलिस ने भी इसलिए भाग लिया, ताकि पूर्वोत्तर दिल्ली के कई स्थानों पर सीएए के विरोध प्रदर्शन स्थलों को खत्म किया जा सके।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कई मामलों में दिल्ली पुलिस के जवान पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम निवासियों को निशाना बनाते हुए पाए गए, वे सीएए विरोधी प्रदर्शनों के ख़िलाफ़ अपना गुस्सा निकाल रहे थे।
रिपोर्ट में जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों और विश्वविद्यालय के सीसीटीवी फुटेज के हवाले से भी पुलिस के पक्षपाती रवैये का उल्लेख किया गया है।
रिपोर्ट में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों और हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं व भाजपा नेताओं के खिलाफ पुलिस की कार्रवाईयों के बीच भी तुलना की गई है कि किस तरह पुलिस ने दोनों पक्षों के प्रति कार्रवाई में भेदभाव किया।
सोर्स पार्स टूडे