जानिए बच्चों के साथ प्रैंक करना कैसा है?!
प्रैंक में भी मौज-मस्ती होती है लेकिन उसमें इंसान पर एक तरह से प्रयोग किया जा रहा होता है। दिक्क़त यह है कि उस प्रयोग में व्यक्ति को चोट लग सकती है, वह डर सकता है या उसे बुरा लग सकता है।
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लखनऊ में मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं कि प्रैंक ऐसा मज़ाक है, जिसमें किसी को विक्टिम यानी शिकार बनाया जाता है।
वह कहते हैं कि ऐसी क्रिया जो लोगों को ख़ुशी और आनंद दे उसे फ़न या मौज-मस्ती कहा जाता है। जैसे कि चुटकुला इसमें सुनाने वाले को भी मज़ा आता है और सुनने वाले को भी राजेश पांडे कहते हैं, “क्लास में दाख़िल हो रहे बच्चे को कोई पांव अटकाकर गिरा दे तो सब लोग हंसेंगे। लेकिन गिरने वाले को चोट लग सकती है। यह भी एक प्रैंक है, मगर इसे मनोरंजन का सही तरीक़ा नहीं माना जा सकता।
बच्चों के साथ होने वाले प्रैंक को देखकर लोग असहज हो जाते हैं क्योंकि प्रैंक करने और किसी को बुली यानी परेशान करने में बहुत महीन अंतर है। प्रैंक करना उस समय परेशान करना बन जाता है जब विक्टिम कम ताक़तवर हो।
कॉमेडी का एक नियम माना जाता है ‘पंच अप, नॉट किक डाउन यानी व्यंग्य करने के लिए प्रभावशाली लोगों को निशाने पर लिया जाता है, कमज़ोर लोगों को नहीं जबकि बच्चों के साथ होने वाले प्रैंक में हमेशा बच्चे निशाने पर होते हैं।
प्रैंक का शिकार बनना किशोरों और बड़ों के लिए भी हमेशा मनोरंजक हो, यह ज़रूरी नहीं है। रेचल मेलविल-थॉमस ब्रिटेन में एसोसिएशन ऑफ़ चाइल्ड साइकोथेरेपिस्ट की प्रवक्ता हैं।
वह कहती हैं कि कोई प्रैंक तभी कामयाब माना जा सकता है जब कोई समझ जाए कि उसके साथ मज़ाक किया गया है, उसे कोई नुक़सान न पहुँचा हो और वह भी साथ में ठहाके लगाने लगे।
वह कहती हैं, “हम मिलकर हँसना चाहते हैं. ऐसा करने से सामाजिक समूहों में क़रीबी बढ़ती है. कोई प्रैंक तभी मज़ेदार होता है जब विक्टिम तुरंत हंसने वालों में शामिल होकर कहे कि वाह, क्या प्रैंक था. लेकिन ऐसा होना तब आसान नहीं है, जब आपने किसी के सिर पर कोई चीज़ फोड़ी हो।
प्रैंक से बच्चों के मन पर होने वाला गहरा असर
प्रैंक में एक ऐसा विक्टिम होता है जिसे पता नहीं होता कि उसके साथ मज़ाक किया जा रहा है। उसे चौंकाने पर जो हंसी आती है, उस बात को समझना बच्चों के लिए आसान नहीं होता।
छोटे बच्चे विकास के शुरुआती दौर में होते हैं। उनके लिए किसी हास्य को तुरंत समझ पाना मुश्किल होता है। हालांकि, छोटी उम्र से ही बच्चे हंसाने वाली बातों के बारे में सीखना शुरू कर देते हैं।
कुछ शोधकर्ताओं ने पाया कि पांच से छह साल की उम्र में बच्चा व्यंग्य को समझने लग जाता है कुछ बच्चे चार साल की उम्र में ही चुटकुलों को समझने लग जाते हैं। सीखने की यह प्रक्रिया किशोरावस्था तक जारी रहती है। इन प्रैंक के साथ एक समस्या यह भी है कि इन वीडियो को बच्चों की इजाज़त के बिना रिकॉर्ड करके ऑनलाइन पोस्ट किया जा रहा है।
सवाल यह भी उठता है कि बच्चों को शारीरिक नुक़सान पहुंचाने वाले प्रैंक को मनोरंजक कैसे माना जा सकता है? ख़ासकर तब, जब ऐसे वीडियो में कई सारे बच्चों के हावभाव दिखाते हैं कि उन्हें चोट लगी है।
बाल मनोचिकित्सक रेचल मेलविल-थॉमस इस बात पर भी हैरानी जताती हैं कि इस तरह के प्रैंक वीडियो में बच्चों की प्रतिक्रिया नकारात्मक है मगर माता-पिता और बड़े लोग हंस रहे हैं।
यह बात अट्यूनमेंट यानी समान भावना दिखाने के ख़िलाफ़ है जिसकी सलाह कई बाल मनोवैज्ञानिक देते हैं। जैसे कि बच्चे को चोट लगने पर मां का भी दर्द भरी प्रतिक्रिया देना। इससे बच्चों को यह सीखने में मदद मिलती है कि किस परिस्थिति में कैसी भावना दिखानी होती है. मगर प्रैंक में हो रहा व्यवहार ठीक उलट है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि विक्टिम की भावनात्मक प्रतिक्रिया या उन्हें पीड़ा पहुंचाने पर आधारित प्रैंक वीडियो सोशल मीडिया का स्याह पहलू है।
मेलविल-थॉमस कहती हैं, “माता-पिता को तो ये सब करके व्यूज़, लाइक या अन्य तरह से कुछ न कुछ फ़ायदा मिल रहा होता है। ऐसे में वे इस बारे में नहीं सोच पाते कि उनके बच्चे को क्या महसूस हो रहा होगा। प्रैंक करते समय वे बच्चे की ज़रूरत के बजाय अपनी ज़रूरत पर ज़्यादा ध्यान दे रहे होते हैं।