2006 से हर साल निकलने वाली इस रिपोर्ट अनुसार भारत की स्थिति हमेशा चिंताजनक ही रही है, लेकिन तब से 2014 के बीच कुपोषण व भुखमरी की स्थिति में सुधार हुआ था।
पिछले साल की तरह इस वर्ष भी भारत की केंद्र सरकार ने रिपोर्ट को ग़लत बताकर खारिज कर दिया है।
इस रिपोर्ट में भूख की गणना के लिए चार सूचकांक प्रयोग किए जाते हैं जिनमें उम्र अनुसार कम लंबाई वाले बच्चों का अनुपात, लंबाई अनुसार कम वज़न वाले बच्चों का अनुपात, बच्चों का मृत्यु दर और कम कैलरी खाने वाली आबादी का अनुपात शामिल होता है।
पहले तीन सूचकांक सरकार के ख़ुद के आंकड़े हैं और चौथा सरकार द्वारा दी गई जानकारी अनुसार एफ़एओ का आकलन है। भूख के आकलन के लिए कौन से सबसे उपयुक्त सूचकांक होंगे या क्या प्रणाली विज्ञान होगा, यह चर्चा का विषय हो सकता है लेकिन भारत में व्यापक कुपोषण, गरीबी और भुखमरी को किसी हालत में नकारा नहीं जा सकता है।
कोविड-19 लॉकडाउन ने देश में भुखमरी की स्थिति का ख़ुलासा कर दिया था। कुछ दिन रोज़गार न मिलने के कारण हाशिये पर रहने वाले करोड़ों लोगों को महज़ पेट भरने के लिए खाने के लाले पड़ गए थे। इन दो सालों का कुपोषण पर हुए प्रभाव का तो अभी तक सही से आकलन हुआ ही नहीं है. ऐसी स्थिति में कुपोषण और भुखमरी को नकारना अमानवीय है। सवाल यह है कि मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में इन्हें कम करने के लिए क्या किया?