बिना स्पष्ट जननांग के साथ पैदा हुए शिशु का लिंग क्या मां बाप तय कर सकते हैं?
ये अनोखा सवाल केरल हाईकोर्ट के सामने आया, जहां सामाजिक बहिष्कार के भय से सात साल के एक बच्चे के अभिभावकों ने सेक्स चेंज सर्जरी की अनुमति मांगी है।
अदालत ने अपने फैसले में उनकी मांग ठुकरा दी लेकिन साथ ही इस मामले में विचार करने के लिए एक कमेटी गठित करने का निर्देश दिया।
इस बच्चे के जननांग पूरी तरह विकसित नहीं हुए हैं। बच्चे में क्लिटोरिस का आकार बड़ा है जो पुरुष जननांग जैसा है। लेकिन बच्चे में गर्भाशय और अंडाशय भी हैं। मूत्राशय और योनि का निकास एक है और यहां से अलग नलिकाएं गर्भाशय और मूत्राशय को जाती हैं।
इसके अलावा बच्चे के क्रोमोसोम्स कैरियोटाइप 46XX हैं जिसका मतलब है कि अनुवांशिक रूप ये 'फ़ीमेल' गुणसूत्र हैं। तकनीकी रूप से मेडिकल साइंस में इसे ‘कांजेनाइटल एड्रीनल हाइपरप्लेक्सिया’ कहते हैं।
साधारण शब्दों में, ये जननांगों के विकास में एक विकृति है जो 130 करोड़ की आबादी में क़रीब 10 लाख मामले में होती है।
सेक्स और जेंडर दो अलग धारणाएं
अपने आदेश में जस्टिस अरुण ने लिखा है कि आम बोलचाल की भाषा में लिंग (जेंडर) और सेक्स को एक मान लिया जाता है लेकिन इंसान की पहचान और जैविकता से जुड़ी दो अलग अलग धारणाएं हैं।
उन्होंने कहा, “सेक्स या लिंग एक व्यक्ति की जैविक विशिष्टता को दर्शाता है, ख़ासकर उनके प्रजनन की शारीरिक संरचना और क्रोमोसोम के संयोजन के संबंध में जबकि दूसरी तरफ़ जेंडर एक सामाजिक और सांस्कृतिक धारणा है जो महिला पुरुष या थर्ड जेंडर के साथ जुड़ी पहचान, भूमिकाओं, व्यवहार और उम्मीदों को अपने आप में समेटे हुए है।
यह भी पढ़े : सेक्स के लिए सहमति की उम्र 16 साल करने की मांग
एक लेख को कोट करते हुए आदेश कहता है, “चूंकि उभयलिंगी में दोनों लिंग होते हैं, इसलिए वे लैंगिक अंतर से जुड़ी पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देते हैं और दोनों लिंगों के साथ रहने की क्षमता होने की वजह से समलैंगिकता का ख़तरा बढ़ जाता है।
जस्टिस अरुण ने कहा, “जननांग रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी की मंज़ूरी देना, भारत के संविधान की धारा 14, 19 और 21 के तहत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन है और बिना सहमति के सर्जरी बच्चे की निजता और गरिमा का उल्लंघन है।
उन्होंने कहा, “अगर किशोरवय में जाने पर बच्चे में एक ख़ास जेंडर की ओर रुझान पैदा होता है, जो सर्जरी जेंडर से अलग है तब इस तरह की सर्जरी की इजाज़त देने से गंभीर भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं.”
जस्टिस अरुण ने ट्रांसजेंडर पर्संस प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स एक्ट 2019 के अध्ययन के बाद कहा कि जेंडर चुनने का अधिकार उस व्यक्ति के अलावा और किसी के पास नहीं है, यहां तक कि अदालत के भी पास नहीं।