110 सालों बाद भी बाक़ी हैं ये अद्भुत रहस्य
टाइटैनिक के बारे में बहुत पढ़ा होगा और सुना भी होगा लेकिन क्या जानते है 110 बीत जाने के बाद भी टाइटैनिक के यह अद्भुत रहस्य आज भी बाक़ी है।
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ठीक 110 साल पहले टाइटैनिक एक अंधेरी रात के वक्त एक आइसबर्ग (हिमखंड) से टकरा गया था। उस वक्त अधिकांश यात्री नींद के आगोश में थे। हादसे के वक्त टाइटैनिक 41 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से इंग्लैंड के साउथम्पैटन से अमेरिका के न्यूयार्क की ओर बढ़ रहा था और महज तीन घंटे के अंदर 14 और 15 अप्रैल, 1912 की दरमियानी रात में टाइटैनिक अटलांटिक महासागर में समा गया। जिस जहाज के कभी नहीं डूबने की चर्चा थी, वह डूब गया। हादसे में 1500 के करीब लोग भी मारे गए। इसे 110 साल बीतने के बाद भी सबसे बड़ा समुद्री हादसा माना जाता है।
हादसे की जगह से अवशेषों को सितंबर, 1985 में हटाया गया था। हादसे के बाद, कनाडा से 650 किलोमीटर की दूरी पर 3,843 मीटर की गहराई में जहाज दो भागों में टूट गया था और दोनों हिस्से एक दूसरे से 800 मीटर दूर हो गए थे।
ये जहाज डूब नहीं सकता था'
इस विशालकाय जहाज के बारे में कहा गया था कि यह डूब नहीं सकता, ईश्वर भी इसे डूबा नहीं सकते। इस भरोसे की अपनी वजहें भी थीं।
रियो डि जेनेरियो की फ़ेडरल यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ़ नेवल एंड ओसन इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर और इंजीनियर अलक्जेंडर द पिन्हो अल्हो ने बताया, "इंजीनियरिंग के लिहाज से देखें तो यह डिज़ाइन के आधार पर विकसित पहला जहाज था। जहाज में कई वाटर टाइट कंपार्टमेंट बनाए गए थे। यानी अगर जहाज का कोई कमरा पानी से भर जाए तो वह दूसरे कमरे को डूबा नहीं सकता था।"
इस जहाज को तैयार करने के दौरान कुछ मुश्किलें भी हुई थीं, जहाज की ऊंचाई कितनी रखी जाए, ताकि बिजली के तार और पानी के पाइप ठीक से काम करते रहें, इस पर काफी सोच विचार हुआ था। प्रोफेसर अल्हो के मुताबिक़, "इस पर सोच विचार करने के बाद उन लोगों ने जहाज की ऊंचाई निर्धारित की थी, पानी भरने की स्थिति में भी उन लोगों का आकलन था कि पानी छत की ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाएगा। उन्होंने छत पर भी सुरक्षित कंपार्ट्मेंट्स बनाए थे।" लेकिन तब किसी ने आइसबर्ग से ज़ोरदार टक्कर के बारे में सोचा नहीं होगा।
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प्रोफेसर अल्हो ने बताया, "टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि जहाज की मुख्य बॉडी की आधी लंबाई तक सुराख हो गया था। ऐसी परिस्थिति में पानी छत तक पहुंच गया था।" जहाज में पानी पूरी तरह से भरने लगा था। ऐसी स्थिति में बचाव संभव नहीं होता है। आप पानी निकालने के लिए सभी पंप को सक्रिय कर सकते हैं, तमाम कोशिशें कर सकते हैं लेकिन पानी जिस रफ़्तार से अंदर आ रहा होता है, उसी रफ्तार से बाहर नहीं निकाला जा सकता है।"
जहाज बनाने और नेविगेटर सिविल इंजीनियर थियेरी बताते हैं, "टाइटैनिक का प्रचार इस तरह से किया गया था कि यह डूब नहीं सकता है। इसकी वजह यह थी कि बहुत सारे तहखाने बनाए थे जो वाटर टाइट दीवारों से बने थे। तहखाने की दो कतारों में पानी भरने की स्थिति में जहाज डूबने वाला नहीं था। लेकिन आइसबर्ग से टक्कर ने जहाज को काफी नुकसान पहुंचाया और वाटरटाइट कंपार्टमेंट्स की कई दीवारें नष्ट हो गई थीं।"
फ्लूमिनेंसे फ़ेडरल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और ट्रांसपोर्ट इंजीनियर ऑरिलो सोरास मूर्ता के मुताबिक, 'टाइटैनिक के वाटर टाइट कंपार्टमेंट को बंद करने की व्यवस्था भी ठीक से काम नहीं कर रही थी।' उस दौर में जहाज को बनाने में प्रयुक्त धातु मौजूदा स्टील जितनी मज़बूत नहीं थी।
सोरास मूर्ता ने बताया, "ज़ोरदार टक्कर के बाद जहाज के ढांचे में भी बदलाव आ गया था। दरवाजे बंद नहीं हो रहे थे, वे फंस गए थे। उस वक्त भी टाइटैनिक शुद्ध स्टील से बनाया गया था लेकिन तब का स्टील आज के स्टील जितना मज़बूत नहीं होता था।"
साओ पाओलो के मैकेंजी पेर्सेबायटेरियन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और धातु विज्ञान के इंजीनियर जान वैतावुक बताते हैं कि 1940 के दशक तक समुद्री जहाज की मुख्य बॉडी, धातु के शीट से बनता था। हालांकि बाद में इन जहाजों की मुख्य बॉडी बनाने में धातुओं को पिघलाकर इस्तेमाल किया जाने लगा।
वैतावुक बताते हैं, "तब से लेकर अब तक तकनीक और सामग्री काफी बदल गई है। अब धातु को पिघलाकर शीटों को जोड़ा जाता है। स्टील बनाने में भी कार्बन का इस्तेमाल कम होने लगा है और मैगनीज का इस्तेमाल बढ़ने लगा है। आज का स्टील बहुत ज़्यादा मजबूत होता है।" वैतावुक के मुताबिक़, आज के समुद्री जहाज पानी, समुद्री लहरों के उतार चढ़ाव और समुद्री तूफ़ानों से तालमेल बिठाने में कहीं ज़्यादा सक्षम होते हैं।
टाइटैनिक अकेला नहीं था
टाइटैनिक अकेला नहीं था। इस जहाज को चलाने वाली कंपनी व्हाइट स्टार लाइन कंपनी ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत में बेलफास्ट शहर के हारलैंड और वोल्फ शिपयार्ड को तीन जहाजों को तैयार करने का ऑर्डर दिया था।
उम्मीद की जा रही थी कि विश्वस्तरीय डिज़ाइन टीम द्वारा निर्मित ये तीनों जहाज दुनिया के सबसे लंबे, सुरक्षित और सुविधाओं से युक्त होंगे। इंजीनियर स्टंप ने बताया, "इन परियोजनाओं को उस दौर में ख़ूब प्रचारित भी किया गया था।"
1908 से 1915 के बीच निर्मित इन जहाजों को ओलंपिक क्लास के जहाज कहा गया था। पहले दो जहाज को तैयार करने का काम शुरू हुआ था, 1908 में ओलंपिक और 1909 में टाइटैनिक का। तीसरे जहाज जाइगेन्टिक का उत्पादन 1911 में शुरू किया गया। हालांकि, तीनों जहाज किसी ने किसी हादसे में शामिल रहे। ओलंपिक जहाज की सेवा जून, 1911 में शुरू हुई थी, उसी साल यह एक युद्ध पोत से टकरा गया था। मरम्मत के बाद इसकी सेवा फिर शुरू हुई।
पहले विश्व युद्ध के समय, ब्रितानी नौ सेना ने इसका इस्तेमाल सैनिकों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए किया था। 1918 में यह एक जर्मनी पनडुब्बी से टकरा गया था। मरम्मत के बाद 1920 से फिर इसका इस्तेमाल शुरू हुआ। पुराने और भरोसेमंद माने जाने वाले इस जहाज का इस्तेमाल 1935 तक किया गया। टाइटैनिक ने अपनी पहली यात्रा 10 अप्रैल, 1912 को शुरू की थी। साउथम्पैटन बंदरगाह के बाहर यह एक अन्य जहाज से टकराते टकराते बचा था। 14 अप्रैल को यह ऐतिहासिक हादसे का शिकार हो गया।
जाइगेन्टिक का भी बहुत इस्तेमाल नहीं हुआ। इसका नाम बदलकर ब्रिटानिक कर दिया गया था। ब्रिटिश नौ सेना ने इसे पहले विश्व युद्ध के दौरान अस्पताल में तब्दील कर दिया था। यह जहाज नवंबर, 1916 में डूब गया था। अपने समय में यह तीनों जहाज काफ़ी विशालकाय थे लेकिन आज की तुलना में ये बहुत छोटे कहे जाएंगे।
मूर्ता कहते हैं, "आज के जहाजों की तुलना में वे नौका भर थे।"
टाइटैनिक की लंबाई 269 मीटर थी। चालक दल और यात्रियों को मिलाकर इस पर करीब 3300 लोगों के ठहरने की सुविधा थी। आज की सबसे बड़े समुद्री यात्रियों का जहाज वंडर ऑफ़ द सी है, जो 362 मीटर लंबा है और इस जहाज पर चालक दल के 2300 सदस्यों के साथ सात हज़ार यात्री यात्रा कर सकते हैं।
सोर्स : बीबीसी