इस्राईल में क्यों मचा है इतना बवाल ?
पिछले साल एक नवंबर को इस्राईल में आम चुनाव हुए. चार साल के भीतर पांचवीं बार आम चुनाव हुए। इस बार जनादेश मिला एक गठबंधन सरकार के लिए और इस्राईल के 75 वर्ष के इतिहास में सबसे अधिक दक्षिणपंथी और धार्मिक रुझान वाली सरकार बनी।
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इसराइल में इन दिनों बिन्यामिन नेतन्याहू के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध प्रदर्शनों ने दुनिया का ध्यान खींचा है और कई देशों ने वहां के आंतरिक हालात पर चिंता भी व्यक्त की है।
भ्रष्टाचार के कई आरोपों का सामना कर रहे इसके नेता बिन्यामिन नेतन्याहू, जो राजनीतिक संकटों से उबरने में कई बार सफल रहे हैं, ने छठवीं बार प्रधानमंत्री का पद हासिल किया। लेकिन उनके कुछ फ़ैसलों के ख़िलाफ़ हज़ारों प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए।
यह प्रदर्शनकारी इस्राईल की सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों में व्यापक बदलाव के प्रस्ताव और सार्वजानिक जीवन में धर्म को बड़ी भूमिका प्रदान करने की योजना से नाराज़ थे। कई लोगों को लग रहा था कि इससे जनता के नागरिक अधिकार सीमित हो जाएंगे।
ये विरोध प्रदर्शन बढ़ते गए, अधिक संगठित होते गए और इन्हें अधिक आर्थिक सहायता मिलती गई। तो इस हफ़्ते दुनिया जहां में हमने यह जानने की कोशिश की कि इस्राईल में उथल पुथल क्यों है?
इस्राईली लोकतंत्र में अनुपात के आधार पर प्रतिनिधित्व होने की वजह से वहां सभी सरकारें गठबंधन से ही बनती हैं और अब तक यहां सरकार वामपंथ या दक्षिणपंथ की ओर झुकने वाले दलों के बीच समझौते के चलते बनती थीं।
लेकिन एक नवंबर के चुनाव के बाद जनता ने एक अलग तरह का जनादेश दिया।
इस बारे में इस्राईल डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट में राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर टमार हर्मन कहती हैं कि इस जनादेश ने वामपंथ को कमज़ोर किया और दक्षिणपंथ को मज़बूत किया। उनका कहना है कि चुनाव में दो अतिरूढिवादी पार्टियों के अच्छे प्रदर्शन और दो दक्षिणपंथी दलों के चौदह सीटों पर विजय पाने से पिछली सरकारों की तुलना में अधिक सुसंगत विचारधारा वाली सरकार बनी।
टमार हर्मन का कहना है, “पिछली सरकारें वैचारिक मतभेद के चलते इस तरह के क़दम उठाने से हिचकिचाती थीं लेकिन इस गठबंधन के सदस्यों की सोच एक जैसी है और उन्हें चुनाव मे पराजित हो चुके विपक्षी दलों की ओर से इस प्रकार के विरोध प्रदर्शनों की उम्मीद नहीं थी।
सवाल है कि विपक्षी तबके के इतने शक्तिशाली विरोध प्रदर्शनों का क्या कारण था?
दक्षिणपंथी दल सुप्रीम कोर्ट को एक उदारवादी संस्था की तरह देखते हैं और वो इस्राईली संसद को कोर्ट के फ़ैसले बदलने का अधिकार देना चाहते हैं और न्यायपालिका की नियुक्तियों के अधिकार सरकार को सौंपना चाहते हैं।
इस बारे में टमार हर्मन ने कहा, “सरकार की कोशिश थी कि लोकतंत्र का बस एक ही अंग रहे। संसद पहले ही सरकार के मुकाबले कमज़ोर थी और अब वो न्यायपालिका को भी इतना कमज़ोर करना चाहते थे कि वो किसी भी बात का विरोध ना कर पाए।
विरोध प्रदर्शनों के स्तर को देखते हुए इन फ़ैसलों को स्थगित कर दिया गया। रक्षामंत्री को इस योजना का विरोध करने के कारण बर्ख़ास्त कर दिया गया मगर फिर उन्हें दोबारा बहाल करना पड़ा।
इस्राईल के एटर्नी जनरल ने भी इन बदलावों का विरोध करते हुए बिन्यामिन नेतन्याहू पर क़ानून तोड़ने का आरोप लगाया क्योंकि वो न्यायपालिका में तब बदलाव करना चाह रहे हैं जब उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे हैं।
इसकी वजह से अलग अलग किस्म के तबके विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो गए. इसमें केवल विपक्षी दल ही नहीं बल्कि आम लोग, रिज़र्व सैनिक और वायुसेना के पायलट भी शामिल हो गए. सरकार को ऐसे ज़ोरदार विरोध की अपेक्षा नहीं थी। हालांकि इन विरोध प्रदर्शनों को रोका नहीं गया मगर प्रधानमंत्री ने प्रदर्शनकारियों की विश्वसनीयता को ख़ारिज करने की कोशिश ज़रूर की।
टमार हर्मन कहती हैं, “नेतन्याहू ने प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही और अराजक दिखाने की कोशिश की, जो देश को बर्बाद करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वो यह न्यायिक सुधार देश की आर्थिक स्थिरता और तरक्की के लिए ला रहे हैं और अगर देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है तो वो सरकार की वजह से नहीं बल्कि इन प्रदर्शनकारियों की वजह से होगी जिन्हें इन सुधारों का अर्थ समझ नहीं आ रहा।
अब सवाल यह है कि क्या इस बारइस्राईल के सबसे बड़े राजनीतिक खिलाड़ी बिन्यामिन नेतन्याहू ने वो चाल चल दी है जिसके परिणामों को वो संभाल नहीं पाएंगे। और क्या यह सबसे लंबे समय तक इस्राईल के प्रधानमंत्री पद पर बने रहने वाले बिन्यामिन नेतन्याहू के राजनीतिक करियर का अंत हो सकता है?