स्पर्म सैंपल बदलने से हुई गड़बड़ी, जानिए क्या है मामला
जिन महिलाओं को सामान्य तौर पर बच्चा पैदा करने में परेशानियाँ आती हैं। वह मलिलाएं आईसीएसआई के ज़रिए बच्चा पैदा करने का फ़ैसला करती है। ऐसी ही एक महिला जिसने आईसीएसआई का सहारा लिया लेकिन बाद में उसको पता चला कि स्पर्म उसके नहीं थें।
Table of Contents (Show / Hide)
![स्पर्म सैंपल बदलने से हुई गड़बड़ी, जानिए क्या है मामला](https://cdn.gtn24.com/files/india/posts/2023-07/1688559588.webp)
भारत में भी एक दंपती ने तकनीक का सहारा लिया और जुड़वा बच्चे पैदा हुए। इस दंपती ने एआरटी (असिस्टेंट रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी) तकनीक का इस्तेमाल किया था।
लेकिन बाद में उनके जीवन में एक नया मोड़ जब आया, जब पति को ये पता चला कि एआरटी में इस्तेमाल किया गया सीमेन या वीर्य उनका नहीं था।
दंपती ने इस मामले की शिकायत नेशनल कंज्यूमर डिस्पयूट्स रीड्रेसल कमिशन (एनसीडीआरसी) से की और दो करोड़ रुपए के मुआवज़े की मांग की। इस मामले में कमिशन ने दिल्ली के अस्पताल को डेढ़ करोड़ रुपए का जुर्माना देने को कहा है।
दरअसल ये मामला 15 साल पुराना है।
साल 2008 में इस दंपती ने एआरटी की मदद से बच्चा पैदा करने के लिए नई दिल्ली स्थित एक निजी अस्पताल भाटिया ग्लोबल हॉस्पिटल एंड एंडोसर्जरी का रुख़ किया था।
असिस्टेंट रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी(रेगुलेशन) एआरटी बिल साल 2021 में पारित हुआ है। इसमें कृत्रिम तकनीक की सहायता से प्रजनन होता है।
इसकी सहायता ऐसे दंपती लेते हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर बच्चा पैदा करने में परेशानियाँ आती हैं। इस दंपती ने आईसीएसआई के ज़रिए बच्चा पैदा करने का फ़ैसला किया था।
भारत सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग की वेबसाइट पर इस मामले में एनसीडीआरसी के फ़ैसले का ज़िक्र है। इससे ये पता चलता है कि साल 2008 में ये महिला इस ट्रीटमेंट के ज़रिए गर्भवती हुई और साल 2009 में उन्होंने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया।
लेकिन जब एक बच्चे के ख़ून की जाँच हुई और जब उन्हें बच्चे के ब्लड ग्रुप की जानकारी मिली, तो उन्हें शक हुआ।
ख़ून की जाँच में बच्चे का ब्लड ग्रुप एबी(+) आया था। इस जानकारी के बाद अभिभावको को आश्चर्य हुआ, क्योंकि माँ का ब्लड ग्रुप बी(+) था और पिता का ओ(-) था। इसके बाद दंपती ने बच्चों का पैटरनिटी टेस्ट (डीएनए प्रोफ़ाइल) कराने का फ़ैसला किया।
इस जाँच में ये सामने आया कि जुड़वा बच्चियों के बॉयोलोजिकल पिता, महिला के पति नहीं हैं।
कितने आम हैं ऐसे मामले
डॉक्टर नयना पटेल कहती हैं कि ऐसे मामले बहुत दुर्लभ होते हैं। पिछले 30 साल से गुजरात के शहर आणंद में डॉ. नयना पटेल सरोगेसी सेंटर चला रही हैं।
उनके अनुसार, ''हर बार सैंपल लेने से पहले और अस्पताल में जमा करने तक विटनेस सिस्टम होते है। हम दो विटनेस (प्रत्यक्षदर्शी) रखते हैं लेकिन कई बार ये देखा जाता है कि व्यक्ति अपने घर से सैंपल लाते हैं तो हम ऐसे मामलों में भी सचेत रहते हैं कि कोई गलती न हो। रिकॉर्ड में जानकारी स्पष्टता से बताई गई हो कि सैंपल घर से लाया गया है।'
वे कहती हैं कि अब बहुत आधुनिक तकनीक भी आ गई हैं, जिनमें से एक है इलेक्ट्रॉनिक विटनेस सिस्टम।
डॉ. नयना पटेल कहती हैं कि कई बार सैंपल देने वालों के नाम भी एक जैसे होते हैं, तो उसे लेकर भी बहुत अलर्ट रहना पड़ता है ताकि कोई भी ग़लती न हो।
इलेक्ट्रॉनिक विटनेस सिस्टम को और विस्तार से समझाते हुए डॉ. हर्षा बेन कहती हैं कि जो व्यक्ति सैंपल देने आता है, उसकी एक आईडी बनाई जाती है, जिसमें कोड होता है।
यही कोड सैंपल देने वाले की डिब्बियों में भी होता है। डॉ. हर्षा बेन भ्रूण और उसके विकास के लिए बने विभाग में एंब्रियोलोजिस्ट हैं।
वे बताती हैं, ''हम सीमेन के सैंपल और जिस अडांणु के साथ उसे फर्टिलाइलज़ किया जाता है उस पर यही टैग या बार कोड लगा होता है और अगर इसमें ग़लती होती है तो सिस्टम अलर्ट के सिगनल भेजने लगता है। इन आधुनिक तकनीक ने ग़लती की सभी आशंकाओं को ख़त्म कर दिया है।'
दिल्ली स्थित क्लाउड अस्पताल में डॉक्टर गुंजन सबरवाल इस मामले पर आश्चर्य जताते हुए कहती हैं कि ऐसा होना बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि सभी नियमों को ध्यान में रखकर ये प्रक्रिया शुरू होती है। इसमें सबसे पहले दंपती से सहमति या कंसेंट पत्र पर हस्ताक्षर कराए जाते हैं, जिसमें दोनों की फ़ोटो भी लगी होती है।
वो बताती हैं, ''सैंपल लेने से पहले व्यक्ति का पूरा नाम पूछा जाता है, सैंपल का समय, देने वाले के हस्ताक्षर और फिर उसे एंब्रियोलॉजी विभाग में लेकर जाने तक सब नोट किया जाता है ऐसे में कोई ग़लती होना संभव ही नहीं है।''