जोने ईसा मसीह के बारे में क़ुरान में क्या लिखा है
इस्लाम के आख़िरी पैग़म्बर मोहम्मद (सल-लल-लाहो अलैहि वसल्लम) ने 630 ईस्वी में मक्का पर फ़तह हासिल करके अपने सबसे पुराने ख़्वाबों में से एक को पूरा किया था। इसके बाद उन्होंने मक्का शहर से बुतपरस्ती का नाम-ओ-निशां मिटाने का आदेश जारी किया।
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मक्का पर मोहम्मद साहब की इस मज़हबी फ़तह में गहरे राजनीतिक संकेत भी छुपे हुए थे। मक्का को नए मज़हब का मरकज़ घोषित कर दिया गया था; इसीलिए, मक्का पर विजय, एक अल्लाह से किए गए एक क़ौल को पूरा करने जैसी थी।
ये हक़ीक़त है या फ़साना? ये सवाल मायने नहीं रखता। मैंने जिस रिपोर्ट के हवाले से ये क़िस्सा बयान किया है, वो कम से कम 1200 बरस पुराना है और इस्लाम के तारीख़ी लेखों के शुरुआती दौर का है।
मगर, इस क़िस्से से जो बात बयां होती है, वो ये है कि इस्लाम और ईसा मसीह के उस बुत के बीच साहित्य की एक लंबी परंपरा का अस्तित्व रहा है, जो क़रीब डेढ़ हज़ार बरस से लगातार चला आ रहा ऐतिहासिक संबंध है। दुनिया के किसी ग़ैर-ईसाई मज़हब का हज़रत ईसा से ये लगाव अनूठा है। इस तारीख़ी हक़ीक़त से इंसाफ़ करने के लिए मुझे बहुत बड़े कैनवस की ज़रूरत पड़ेगी। ऐसे में बेहतर यही होगा कि मैं ईसा और इस्लाम के इस ताल्लुक़ का मोटा-मोटा ख़ाका खींचने की कोशिश करूं; इस रिश्ते के चुनिंदा क़िस्सों और निर्णायक क्षणों को ही बयां करूं।
क़ुरान में ईसा मसीह के बारे में क्या लिखा है
मुसलमानों का पवित्र ग्रंथ क़ुरान, एक ऐसा दस्तावेज़ है, जिसे इस्लामिक सभ्यता की धुरी कहा जाता है। ऐसे में ज़ाहिर है हम इस्लाम के नज़रिए से ईसा की जो तस्वीर बनाने की कोशिश करेंगे, उसे बयां करने की शुरुआत क़ुरान से ही करनी होगी। क़ुरान के क़रीब एक तिहाई हिस्से में मोहम्मद से पहले के पैग़म्बरों की तारीख़ बयां की गई है, और इसमें से ज़्यादातर में बाइबिल (ईसाइयों का पवित्र ग्रंथ) का हवाला दिया गया है।
क़ुरान में जिन तमाम पैग़म्बरों का ज़िक्र है उनमें से अकेले ईसा मसीह ही ऐसे हैं, जो सबसे बड़ी पहेली नज़र आते हैं। क़ुरान में किसी और पैग़म्बर की तुलना में ईसा के क़िस्से को सबसे मौलिक तरीक़े से बयां किया गया है। ऐसा करते हुए क़ुरान में हज़रत ईसा का बिल्कुल जुदा चरित्र चित्रण किया गया है। ज़ाहिर है इसके पीछे मक़सद यही है कि उस दौर के ईसाई, ईसा को जिस नज़रिए से देखते थे, क़ुरान में ईसा का उससे एक अलग ख़ाका खींचा जाए।
इसका जो नतीजा निकला, वो किसी ईसाई पाठक या श्रोता के लिए चौंकाने वाला हो सकता है। क़ुरान में ईसा के बारे में किसी अन्य पैग़म्बर की तुलना में क़िस्से के बजाय ज़्यादा धार्मिक रोशनी में लिखा गया है। यहां हज़रत ईसा आपको किसी फ़रिश्ते से बिल्कुल जुदा नज़र आते हैं। न ही वो अवतार लेते हैं और न ही धर्म के प्रचारक हैं और न ही वो उस पीड़ा के प्रतीक हैं, जिसे ईसाइयों के मुताबिक़ ईसा को भोगना पड़ा था।
क़ुरान में न तो ईसा ख़ुद को देवता बताते हैं और न ही ईश्वर की नज़र में वो सीधे तौर पर ख़ुदाई के दर्जे में आते हैं। कोई भी ईसाई ये सवाल उठा सकता है कि अगर ईसा के किरदार से इन सभी ख़ूबियों को अलग कर दिया जाए तो फिर उनकी अहमियत ही क्या रह जाती है?
क़ुरान में हज़रत ईसा का ज़िक्र बार-बार एक ऐसे पैग़म्बर के तौर पर आता है, जिनकी ख़ास अहमियत है। तमाम पैग़म्बरों के बीच उन्हें क़ुरान ने अनूठा बताया है, जो अल्लाह का करिश्मा हैं; वो अल्लाह की ज़ुबान हैं। उनकी आत्मा हैं।
वो अमन के सबसे बड़े संदेशवाहक हैं; और आख़िर में वो ईसा ही हैं जो इस्लाम के आख़िरी पैग़म्बर मोहम्मद के आने की भविष्यवाणी करते हैं, और इस तरह आप ईसा को इस्लाम का अग्रदूत भी कह सकते हैं।