क्या सऊदी अरब और इस्राईल के बीच दोस्ती का समझौता नज़दीक है?
अमरीका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सोलिवान ने सऊदी क्राउन प्रिंस से शुक्रवार को लंबी मुलाक़ात की। मुलाक़ात का ब्योरा नहीं दिया गया।
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कोई महीना ऐसा नहीं गुज़रता कि अमरीका का कोई बड़ा अधिकारी सऊदी अरब का दौरा न करे और सऊदी क्राउन प्रिंस के सामने कोई बड़ा प्रस्ताव न पेश करे ताकि दोनों देशों के संबंध पिछली डगर पर लौट जाएं और रूस और चीन के बढ़ते प्रभाव पर अंकुश लगे, दूसरी तरफ़ इस्राईल और सऊदी अरब के बीच दोस्ती का समझौता हो जाए।
न्यूयार्क टाइम्ज़ के विख्यात स्तंभकार थामस फ़्रेडमैन ने लिखा कि जो बाइडन मिडिल ईस्ट में बड़ी डील की कोशिश में हैं जिसके तहत सऊदी अरब के साथ नैटो का सुरक्षा समझौता होगा। वाशिंग्टन सऊदी अरब को ठोस सुरक्षा कवच देगा जबकि इसके बदले में सऊदी अरब को इस्राईल के साथ दोस्ती का समझौता करना होगा। इस बीच फ़िलिस्तीनी स्टेट की भी स्थापना होगी।
पिछले सप्ताह जो बाइडन से मुलाक़ात करने वाले फ़्रेडमैन ने यह भी लिखा कि सऊदी अधिकारी अमरीका से तीन चीज़ें चाहते हैं। संयुक्त रक्षा समझौता, शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम और आधुनिक सामरिक उपकरण जैसे थाड डिफ़ेंस सिस्टम और एफ़-35 युद्धक विमान।
फ़्रेडमैन ने जो कुछ लिखा है वो दरअस्ल अमरीका की आरज़ूएं और मध्यपूर्व में पुरानी पैठ फिर से हासिल करने की जो बाइडन की विलंबित व निराश कोशिशें है जिसका उद्देश्य इस्राईल को घातक संकटों से उबारना और उसका बोझ सऊदी अरब तथा दूसरे अरब देशों पर डालना है। ईरान के नेतृत्व वाले रेज़िस्टेंस मोर्चे की ओर से इस्राईल के लिए पैदा हो जाने वाले गंभीर ख़तरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
सोलिवान ने सऊदी अरब के एलानिया और ख़ुफ़िया कम से कम दो दौरे किए हैं। पहले दौरे में मुहम्मद बिन सलमान से मुलाक़ात के लिए उन्हें कई दिन इंतेज़ार करना पड़ा था और उसके बाद कुछ मिनटों की संक्षिप्त मुलाक़ात हो पायी थी और उनके प्रस्तावों पर बिन सलमान ने ध्यान नहीं दिया था। वो रूस और चीन से सऊदी अरब के दूर होने और ईरान से संबंधों की बहाली को रोकने की मांग कर रहे थे।
अमरीका का सितारा ढलने लगा है और विश्व नेता की उसकी छवि धूमिल पड़ती जा रही है। कभी रूस से और कभी चीन से उसे अपमान झेलना पड़ रहा है।
हम तो यह समझते हैं कि सऊदी अरब को अमरीका से संयुक्त रक्षा समझौते की कोई ज़रूरत नहीं है। इसी अमरीका ने यूक्रेन को जंग में झोंक कर उसे निराश किया यानी अपना एक भी सैनिक यूक्रेन नहीं भेजा। सऊदी अरब की बात की जाए तो 1945 में अमरीकी राष्ट्रपति रोज़वेल्ट और सऊदी किंग अब्दुल अज़ीज़ के बीच हुए समझौते को अमरीका ने यमन युद्ध में नज़र अंदाज़ करते हुए सऊदी अरब को अकेला छोड़ दिया।
जहां तक परमाणु कार्यक्रम और आधुनिक सामरिक उपकरणों की बात है तो यह दोनों ही चीज़ें वह चीन और रूस से भी हासिल कर सकता है वो भी बिना किसी पूर्व शर्त के। वैसे भी पैट्रियट और थाड मिसाइलों की नाकामी साबित हो चुकी है। इस समय तो रूस के एस-400 और एस-500 सफल साबित हो रहे हैं।
सऊदी अरब ने बड़े स्ट्रैटेजिक फ़ैसले करते हुए ईरान से अपना तनाव समाप्त कर लिया, चीनी राष्ट्रपति का रियाज़ में शानदार स्वागत किया। उसे इस्राईल से दोस्ती करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस्राईल तो दम तोड़ता दरिंदा है उससे दोस्ती करके सऊदी अरब अपनी लोकप्रियता को क्यों बट्टा लगाएगा।
ओपेक प्लस के स्तर पर सऊदी अरब को ज़ोरदार मुनाफ़ा हो रहा है, वो ब्रिक्स का हिस्सा बनने जा रहा है, ख़ुद को मध्यपूर्व के सबसे बड़े टूरिज़्म हब के तौर पर भी विकसित कर रहा है, इस सब के बीच उसे न तो इस्राईल की ज़रूरत है और न अमरीका की।