जानिए रोज़ा क्या है और ये कैसे इस्लाम में शामिल हुआ?
मक्का या मदीना में इस्लाम धर्म के प्रचार के पहले से ही रोज़ा रखने की परंपरा थी। लेकिन शुरुआत में आज की तरह रोज़ा नहीं रखा जाता था।
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इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के बीच-बीच में रोज़ा रखने के बावजूद शुरुआती दौर में उनके साथियों या समर्थकों के लिए 30 रोज़े रखने का मामला अनिवार्य नहीं था।
हज़रत मोहम्मद के हिजरत करने यानी मक्का से मदीना जाने (622 ईस्वी) के दूसरे साल यानी साल 624 ईस्वी में इस्लाम में रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने को फ़र्ज़ अथवा अनिवार्य क़रार दिया गया था।
उसके बाद से ही पूरी दुनिया में बिना किसी बदलाव के रोज़ा रखा जाता रहा है।
रमज़ान जैसा नहीं होने के बावजूद यहूदियों और कई अन्य जातीय समूहों में भी पूरे दिन खान-पान नहीं करने जैसी धार्मिक परंपरा देखने को मिलती है।
लेकिन रोज़ा इस्लाम के पांच प्रमुख धार्मिक स्तंभों में से एक है। बाक़ी चार क्रमशः एक ईश्वर में आस्था, नमाज़, ज़कात और हज हैं।
जिस साल रोज़ा को फ़र्ज़ (अनिवार्य) बनाया गया था उसके दो साल पहले वर्ष 622 में इस्लाम के नबी मक्का से सहाबियों (अपने साथियों) को लेकर मदीना चले गए थे। इस्लाम में इसे हिजरत कहा जाता है। हिजरत की तारीख़ से ही मुसलमानों के वर्ष की गिनती शुरू की गई।
इस्लामी विशेषज्ञों का कहना है कि हिजरी द्वितीय वर्ष के दौरान रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने को मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ क़ुरान के ज़रिए फ़र्ज़ या अनिवार्य किया गया था।
मक्का-मदीना में पहले से थी रोज़ा की परंपरा
ढाका विश्वविद्यालय में इस्लामी शिक्षा विभाग के अध्यापक डॉ. शम्सुल आलम कहा,"क़ुरान की जिस आयत (श्लोक) के ज़रिये रोज़ा को फ़र्ज़ किया गया है उसमें कहा गया है कि पहले की जाति समूह पर भी रोज़ा फ़र्ज़ था।
इससे यह समझा जा सकता है कि विभिन्न जातियों में पहले से ही रोज़ा रखने का प्रचलन था, हालांकि शायद उसका स्वरूप अलग था। मसलन यहूदी अब भी रोज़ा रखते हैं, कई अन्य जातियों में भी ऐसी परंपरा है।
उस समय मक्का या मदीना में रहने वाले कुछ ख़ास तारीख़ों पर रोज़ा रखते थे। कई लोग आशूरा यानी मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख़ को रोज़ा रखते थे। इसके अलावा कुछ लोग चंद्र मास की 13, 14 और 15 तारीख़ को रोज़ा रखते थे।
ढाका विश्वविद्यालय में इस्लामी इतिहास और संस्कृति विभाग के अध्यापक डॉ. अताउर्रहमान मियाजी बीबीसी बांग्ला से कहते हैं,"अन्य पैगंबरों के लिए रोज़ा फ़र्ज़ था। लेकिन वह एक महीने तक चलने वाला नहीं बल्कि आंशिक था।
"इस्लाम के नबी भी मक्का में रहने के दौरान चंद्र वर्ष में तीन दिनों के लिए उपवास रखते थे। यह साल में 36 दिन होता है। इसका मतलब यह है कि वहां पहले से ही रोज़ा रखने की परंपरा थी।
इस्लामी इतिहास का ज़िक्र करते हुए उनका कहना था कि आदम के समय महीने में तीन दिन और नबी दाऊद के समय एक-एक दिन के अंतराल पर रोज़ा रखा जाता था। नबी मूसा ने शुरुआत में तुरा की पहाड़ी पर 30 दिन रोज़ा रखा था। बाद में और दस दिन जोड़ कर उन्होंने लगातार 40 दिन रोज़ा रखा था।
हज़रत मोहम्मद ने वर्ष 622 में मक्का से मदीना जाकर हिजरत करने के बाद मदीना के लोगों को आशूरा ( मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख़) के दिन रोज़ा रखते देखा था। उसके बाद वह भी उसी तरह रोज़ा रखने लगे।
इस्लामिक फ़ाउंडेशन के उप-निदेशक डॉ. मोहम्मद आबू सालेह पटवारी ने बीबीसी बांग्ला से कहा, "पहले के नबियों पर 30 रोज़ा रखना फ़र्ज़ नहीं था। किसी नबी पर आशूरा का रोज़ा रखना फ़र्ज़ था तो किसी पर चंद्र मास की 13,14 और 15 तारीख़ को रोज़ा फ़र्ज़ था।
उनका कहना था कि ऐसा कोई तथ्य नहीं मिलता कि हज़रत मोहम्मद मक्का में रहने के दौरान फ़र्ज़ रोज़ा रखते थे।