क्या फ़िलिस्तीन के मुद्दे का इस्राईली सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तावित बदलाव से कोई संबंध है?
पिछले साल एक नवंबर को इस्राईल में आम चुनाव हुए चार साल के भीतर पांचवीं बार आम चुनाव हुए। इस बार जनादेश मिला एक गठबंधन सरकार के लिए और इस्राईल के 75 वर्ष के इतिहास में सबसे अधिक दक्षिणपंथी और धार्मिक रुझान वाली सरकार बनी।
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बिन्यामिन नेतन्याहू लगभग तीस सालों से इस्राईली राजनीति पर दबदबा बनाए हुए हैं। नेतन्याहू की जीवनी लिख चुके पत्रकार एंशेल फ़ेफ़र के मुताबिक जब नेतन्याहू 2021 में सत्ता से बाहर हुए थे तब ज़्यादातर लोगों को नहीं लगा थी कि वो दोबारा सत्ता में लौट पाएंगे, ख़ास तौर पर तब, जब उनके ख़िलाफ़ अदालत में भ्रष्टाचार के कई मामले चल रहे हैं।
उन्होंने बताया, “उनके ख़िलाफ़ दो मुक़दमे चल रहे हैं और आरोप है कि उन्होंने प्रमुख इस्राईली समाचार चैनलों के साथ मिल कर साज़िश की और अपने आपको फ़ायदा पहंचाने के लिए कवरेज करवाई और बदले में उन चैनलों को नियंत्रण संबधी मामलों में मदद की एक तीसरा केस भी है जिसमें उन पर अमीर लोगों से ढाई लाख पाउंड से अधिक क़ीमत के ग़ैरक़ानूनी तोहफ़े लेने के आरोप हैं। इनमें ज़्यादातर उनकी पत्नी को दिए गए गहने और महंगी शराब हैं।
बिन्यामिन नेतन्याहू इन आरोपों का खंडन करते हैं। भ्रष्टाचार के मुकदमों के जारी रहने के बावजूद वो सत्ता में लौट आए हैं। मगर अब उनके विकल्प सीमित ज़रूर हो गए हैं।
एंशेल फ़ेफर कहते हैं कि पहले जिन दक्षिणपंथी रुझान रखने वाले उदारवादी दलों या वामपंथ से मध्य की ओर झुकने वाले दलों के साथ वो गठबंधन स्थापित कर के वो सरकार बना सकते थे अब उनमें से कई दल नेतन्याहू के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मुकदमों की वजह से उनके साथ सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं लगते। इसलिए अति रूढिवादी दलों के साथ गठबंधन करने और उनके एजेंडे पर चलने के लिए वो मजबूर हो गए है।
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एंशेल फ़ेफ़र कहते हैं, “विगत काल में नेतन्याहू गठबंधन बनाने में बहुत कुशल रहे हैं और जब गठबंधन के कुछ दलों की ओर से अतिवादी मांग उठती थी तो वो उन्हें समझा पाते थे कि हम गठबंधन की सरकार चला रहे हैं इसलिए हम वो सब नहीं कर सकते जो हम चाहते हैं। लेकिन इस गठबंधन में शामिल अधकांश दलों कि विचारधारा अतिवादी है और एक दूसरे मेल खाती है। इसलिए नीति संबंधी उनकी मांगों को ठुकराना नेतन्याहू के लिए इस बार मुश्किल है।
सुप्रीम कोर्ट में बदलाव के फ़ैसले से ख़ुद नेतन्याहू सहमत हों या वो उन पर गठबंधन के दूसरे दलों द्वारा थोंपा गया हो, एक बात तो साफ़ है कि उन्हें इतने व्यापक और शक्तिशाली विरोध की अपेक्षा नहीं थी। विरोध प्रदर्शनों के इस स्तर से इसराइली सरकार ही नहीं अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी चौंक गया है।
एंशेल फ़ेफ़र ने इस बारे में कहा, “सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि नेतन्याहू ने इस्राईली जनता को अपनी बात समझाने की पुरज़ोर कोशिश की हो ऐसा नहीं दिखता। हम नेतन्याहू को इतने साल से देख रहे हैं और अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने में उन्हें महारत हासिल थी। जनता की नब्ज़ पर उनकी अच्छी पकड़ रहती थी। लेकिन इस बार उनका ख़ास कोशिश नहीं करना कई लोगों के लिए चौकाने वाली बात है।
इसकी वजह बताते हुए एंशेल फ़ेफर कहते हैं कि हो सकता है नेतन्याहू ख़ुद यह फ़ैसले नहीं चाहते हों। दूसरी बात यह कि नेतन्याहू सुरक्षा नीति, कूटनीति और आर्थिक नीति संबंधी मामलों को बहुत बेहतर समझते थे लेकिन न्यायिक मामलों की पेचीदगी के साथ वो पहली बार निपट रहे हैं। लेकिन सुरक्षा का मुद्दा हमेशा ही इसराइली राजनीति पर हावी रहा है और इस बार भी वो पीछे नहीं छूटा है।
फिलिस्तीनी मुद्दा कितना अहम
इस्राईल और फ़िलिस्तीन के बीच समझौता वार्ताएं कई सालों से ठप्प पड़ी हैं। दोनों पक्षों के बीच समाधान के तौर दो अलग देशों की मान्यता का विकल्प अब जैसे इतिहास में खो चुके सपने जैसा दिख रहा है। वहीं येरूशमल के पवित्र धार्मिक स्थलों को लेकर हिंसा तीव्र होती गयी है।
फ़िलहाल तो सरकार का पूरा ध्यान एक करोड़ इस्राईली जनता की ओर है जो सुप्रीम कोर्ट मे बदलाव के प्रस्ताव को लोकतंत्र विरोधी मानती है और उसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रही है। मगर जहां तक दक्षिणपंथी कट्टरवादी सरकार की नीतियों का संबंध है वो फ़िलिस्तीन इलाकों में इस्राईली बस्तियों का विस्तार करना चाहेगी और दूर के इलाके में बनी जिन इस्राईली बस्तियों को इस्राईली सरकार भी ग़ैरकानूनी मानती रही है उन्हें क़ानूनी मान्यता देना चाहेगी। साथ ही वो पूरे पश्चिम तट या उसके बड़े हिस्से का इस्राईल में विलय करना चाहेगी।
प्रोफ़ेसर योसी मेकेलबर्ग का कहना है, “वो फ़िलिस्तीन को कमज़ोर करना चाहते हैं और सोचते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इसमें एक बाधा है। वो इस्राईल ही नहीं बल्कि फ़िलिस्तीन में जो भी करना चाहते हैं वो मामले सुप्रीम कोर्ट के मुकदमों में फंस जाते हैं। चंद हफ़्तों मे उन्होंने 144 से ज़्यादा क़ानून पारित कर दिए। मगर उन्हें जनता से इतने बड़े विरोध की अपेक्षा नहीं थी। हो सकता है वो गज़ा और पश्चिम तट में घुसना चाहते हों लेकिन वो यह जारी नहीं रख पाए।
प्रोफ़ेसर योसी मेकेलबर्ग का मानना है कि विरोध प्रदर्शनों की वजह से गठबंधन सरकार के लिए गज़ा और पश्चिम तट में कार्यवाही करना मुश्किल हो गया है क्यों कि सेना के रिज़रविस्ट फ़ोर्स यानि आरक्षित बलों का एक बड़ा तबका विरोध प्रदर्शनों में शामिल है।
हालांकि फ़िलहाल प्रदर्शनकारियों का ध्यान सुप्रीम कोर्ट के बदलावों पर केंद्रित है और वो फ़िलिस्तीन के मुद्दे के बारे में नहीं सोच रहे लेकिन फ़िलिस्तीनियों मे यह अनिश्चितता ज़रूर है कि इस्राईल में जारी इस गतिरोध के ख़त्म होने के बाद क्या होगा।
प्रोफ़ेसर योसी मेकेलबर्ग इस बारे में कहते हैं, फ़िलिस्तीनी लोग सोचते हैं कि फ़िलहाल तो उन्हें मौजूदा इस्राईली सरकार से ख़ास ख़तरा नहीं है लेकिन अगर यह सरकार मौजूदा संकट से उबर गयी तो वो फ़िलिस्तीनी इलाकों में इस्राईली बस्तियों का विस्तार करेगी. जिसका मतलब है और हिंसा होगी, और ‘टू नेशन सोल्यूशन’ यानि दो अलग राष्ट्रों की मान्यता की संभावना अगर अभी भी बची है तो वह हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। उन्हें यह भी लगता है कि यह सरकार ज्यादा दिन नहीं टिकेगी. मगर ज्यादातर फ़लस्तीनी मानते हैं कि इस्राईल में कोई भी सरकार आए उससे ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस्राईल और फ़िलिस्तीन के बीच वार्ताओं के लिए कई सालों से कोई ख़ास कोशिश नहीं कर रहा है। लेकिन जब दोनों के बीच हिंसा बढ़ जाती है तो वो बस उसे नियंत्रित करने या कम करने की कोशिश तक अपनी भूमिका को सीमित रखते हैं।
प्रोफ़ेसर योसी मेकेलबर्ग कहते हैं कि अमरीका और यूरोपीय संघ इस्राईल और फ़िलिस्तीन के बीच समस्या के समाधान कोई हल निकलता नहीं देख रहे हैं, इसलिए उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच रखे हैं। मगर इस्राईल में चल रहे विरोध प्रदर्शनों और उथल पुथल को वो गंभीरता से ले रहे हैं। दुनिया में जहां कई गठबंधन बन और बिगड़ रहे हैं वहां सभी को मध्यपूर्व की राजनीति पर नए तरीके से सोचने की ज़रूरत महसूस हो रही है।